सोमवार, 23 सितंबर 2024

श्री संत शिरोमणि बाबा गणिनाथ महाराज जी की फोटो

श्री संत शिरोमणि बाबा गणिनाथ महाराज जी की फोटो

श्री संत शिरोमणि बाबा गणिनाथ महाराज जी की फोटो

श्री संत शिरोमणि बाबा गणिनाथ महाराज जी की फोटो

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श्री संत शिरोमणि बाबा गणिनाथ महाराज जी की फोटो

श्री संत शिरोमणि बाबा गणिनाथ महाराज जी की फोटो

श्री संत शिरोमणि बाबा गणिनाथ महाराज जी की फोटो

शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

💐💐💐💐अभ्युदय गीत💐💐💐💐

महासभा का ध्वज है | इसका परिमाप 3 लम्बा एवं 2 चौड़ा है रंग केशरिया है तथा मध्य में उगता हुआ सूर्य अंकित है जो जागरण कर्मशीलता समर्पण बलिदान एवं परगति का प्रटिक है इसी कारण सभी शुभ अवसरों पर इसका उत्तोलन सामूहिक करते हैं तथा ध्वज गान गाते है। 
अर्थ - अभ्युदय मध्यदेशीय वैश्य (कंदु) समाज का अत्यंत प्रिय तथा शाश्वत सम्बन्ध स्थापित करने वाला ध्वज है यह समाज के समग्रः जन -मन का अतीव प्रिय ,परम दिव्य सुचिता का प्रतिक तथा नेसगिक शोभा की खानी है |
ये ध्वज हमारे जाति,समाज तथा देश-वासियों के सबसे प्रिय ,मूल्यवान एवं आंखोकी पुतलियो के सामान प्रकाशमान है |
यह ध्वज के प्रतेक फडकन से हमे शिक्षा मिलती है यह अज्ञानता से ज्ञान के प्रकाश में लाने का प्रयास करते है हमे स्वस्थ जीवनं की सिख देता है तथा हमारे अंत करण में प्रेम ,सदभावना ,सहिष्णुता तथा भ्रतिबकी मन्दाकिनी बहता है |
यह ध्वज समाज के अज्ञान के अंधकार को समाप्त करता है जन-जन में निहित वैमनस्य को नष्ट कर उसमे संगठन के भाव जगाता है यह हमारे जीवन में प्रकाश कि ऐसी नंदादीप जला देता है जो साश्वत प्रकाशित रहता है कभी बुझता नही है |
यह ध्वज समाज के समग्र शिशुओ ,बालो ,युवाओ ,प्रोढ़ एवं वृद्ध नर-नारीओ का परम साध्य है | यह युवाओ में शक्ति का केंद्र तथा वृद्धओ के प्रेरणा का स्रोत है |
यह ध्वज ,रात्रि में अनंत रश्मियों से प्रकाशित होने वाले ध्रुव तारे के सदृश्य , अचुन्न्य ,शाश्वत एवं स्थिर है| यह प्रकृति की उष:कालीन लालिमा को अभिव्यक्त कर प्रसानता की अभिव्यक्ति करता है | इस्म्के फडकन से रक्त पीट संबलित आभा निसृत होकर दिव्या एवं सुहावनी होती है |
"अम्युदय ध्वज" के प्रति अनंत लोगो की स्नेह एवं भक्ति इसके प्रति श्रध्दा एवं वालिदान का परिचायक है यह ध्वज जन जन के अंत :करण में स्नेह ,श्रध्दा संगठन एवं शक्ति बनकर वैभव की ओर अग्रसर होने व उत्प्रेरणा जगता है |

💐💐💐💐अभ्युदय गीत💐💐💐💐

सभी लोगों का प्यारा हमारा आज अभ्युदय
मधुर शुचि दिव्य सारा है आज अभ्युदय
हमारे देश का प्यारा
हमारा जाति का तारा
सभी लोगो से न्यारा है हमारा आज अभ्युदय
ये देता है ज्ञान की शिछा
बहाता प्रेम की गंगा हमारा आज अभ्युदय
ये करता स्वास्थ्य की रछा
अविधा फूट को हरता है
हमारा संगठन करता
है भरता ज्योति जीवन का हमारा आज अभ्युदय
है बच्चो को भी प्यार यह
है वर्धो का दुलारा यह
है जीवन जन युवको का आज अभ्युदय
हमारे - वर डाली
युवको वर व्रन्दा डाली
खिला मन बालकों का यह पुष्प हमारा आज अभ्युदय
निशा का अचल ध्रुव तारा
उषा का हास्य म्रदु प्यारा
ये प्राची का है अरुड़ोदय हमारा आज अभ्युदय
रजत समशुभ्र है भक्ति
केसरिया रंग युवा शक्ति
अरुण अनुराग की धारा हमारा आज अभ्युदय

🙏🙏 संत शिरोमणि बाबा सरजूदास जी 🙏🙏

सन्त शिरोमणि बाबा सरजू दास जी मध्देशिया वैश्य अनाथाश्रम करजौली के संस्थापक एवं सामाजिक उत्थान के अग्रदूत | बीसवी सदी का पूर्वार्द्ध जब देश में स्वातंत्र्य आन्दोलनों की लहर चल रही थी उसी समय देश में अनेक महापुरुषों द्वारा सामाजिक उत्थान के अभियान भी चलाये जा रहे थे | ऐसे ही लोगो में अग्रगण्य थे, सन्त शिरोमणि बाबा सरजू दास, जिनकी कर्मठता एवं सफल प्रयासों का साक्षी है --- मध्यदेशीय वैश्य अनाथाश्रम करजौली (खुरहट), मऊ - उत्तर प्रदेश |

बाबा कपूर दास जी, बाबा दास एवं बाबा राम सुभग दास जैसे महान सन्तो को तपोस्थली कप्तानगंज, जनपद - आजमगढ़ के निवासी श्री सुदीन साव के सुपुत्र एवं श्री बाबु लाल साव के सुपुत्र के रूप में माता श्रीमती लखपति देवी की कोख से बाबा सरजुदास जी का जन्म उन्नीसवीं शताब्दी के आठवें, नौवे दशक के आस पास हुआ था | इनके बड़े भाई का नाम पडोही कांदु तथा बहन जो की उम्र में छोटी थी का नाम छविराजी देवी था , जिनका विवाह कोयलसा निवासी तम्बाकू व्यवसायी श्री पलटन साव के साथ हुआ था | आप आजीवन अविवाहित एवं ब्रह्मचारी रहे | अंतिम शिक्षा क बारे में सही जानकारी तो नहीं मिल सकी है, लेकिन पल्टू साहब की दुर्लभ वाणी का संग्रह और उसे बिल वेडियर प्रेस इलाहबाद में छ: खंडों में प्रकाशित करवाना उनके पूर्ण शिक्षित होने की पुष्टि के लिए पर्याप्त प्रमाण है |

बचपन से ही घुमकड़ प्रवृत्ति एवं साधू - सन्तो की सेवा और संगत ने उसमे जीवन से विरक्ति उत्पन्न कर दिया | सन्त शिरोमणि बाबा पल्टू साहब अखाड़ा अयोध्या से सम्बद्ध कप्तान गंज कुटी के सन्त बाबा कपूर दास के शिष्य बाबा बन्धु दास जी से दीक्षा लेकर उनके शिष्य बन गए | वह स्थान आज भी बाबा गोपदास कुटी कप्तान गंज आजमगढ़ के नाम से ख्याति प्राप्त है |

बाबा गोपीदास जी तथा उदासीन मुनी बाबा शारदा राम जी इनके बल सखा थे | जीवन से विरक्ति का जो बीज बचपन में अंकुरित हुआ था , शनै: शनै: बढता गया तथा एक दिन अपने मित्र सखाराम जी के साथ घर छोड़ कर वैरागी हो गए और काफी दिनों तक एक साथ तीर्थो और मंदिरों में घुमने क बाद दोनों लोगो ने अपनी अपनी दिशा बदल लिया | स्वयं बाबा सरजू दास जी ने सूर्य की प्रातः कालीन रश्मियों से आलोकित प्राची दिशा की राह पकड़ी और बिहार, उड़ीसा , बंगाल असम अदि राज्यों के कटक , कोलकता , दार्जलिंग, गोहाटी आदि नगरो की लम्बी यात्रा करने के बाद अंत में वापस आकर करजौली को अपनी साधना स्थली बनाया जबकि दुसरे मित्र बाबा शारदा राम जी ने अस्तांचल गामी सूर्य की शीतल किरणों से अवगाहित पश्चिम दिशा की रह पकड़ी और दिल्ली पंजाब गुजरात होते हुए पूना पहुंचकर अपने को एक सिद्ध सन्त और उदासीन मुनी के रूप में प्रतिष्टित किया |

अपनी यात्रा के दौरान बाबा सरजू दास जी ने देश क विभिन्न मार्गो में स्वजातीय कांदु वैश्य समाज के लोगो की दयनीय एवं चिंतनीय दीन हीन दशा को देखा , यधपि कि अपने उदात्त एवं उत्तम विचारो के कारण वह सभी जाती वर्ग के लोगो में समान रूप से ग्रह्य एवं पूज्य थे | फिर भी अपने मध्यदेशीय समाज क पिछड़ेपन , गरीबी अशिक्षा , बेरोज़गारी आदि से काफी चिंतित रहा करते थे |

सन 1925 दोहरीघाट, जनपद - मऊ (तब आज़मगढ़) में सम्पन्न अखिल भरतीय मध्यदेशीय वैश्य महासभा उत्तर प्रदेश के अधिवेशन में पारित प्रस्ताव के अनुरूप बाबा सरजू दास जी ने दिनांक 26 मार्च 1926 को मध्देशिया अनाथाश्रम करजौली की स्थापना किया, तथा दिनांक 18-01-1932 को उसका पंजीयन भी करा लिया | आश्रम को आत्मनिर्भर बनाने के लिए स्वजातीय एवं स्थानीय लोगो के जन सहयोग से लगभग 100 एकड़ भूमि क्रय करके अपनी प्रबल एवं इच्छा शक्ति तथा सेवा भावना का परिचय दिया | आश्रम में एक विद्यालय के साथ ही कुटीर उधोगो की स्थापना की गई , यहाँ अपने कांदु समाज के लोगो साथ हर वर्ग जाति के बच्चो के पढने लिखने के साथ ही भोजन एवं आवास की नि:शुल्क व्यवस्था की गई | बाबा सरजू दास की सक्रियता एवं कर्मठता के कारण आश्रम की ख्याति अपने जिले व प्रदेश के साथ ही बिहार , बंगाल , उड़ीसा तथा असम आदि राज्यों तक फ़ैल गई |करजौली के अतिरिक्त लालगंज, कोपागंज, मऊ आदि स्थानों पर भी अपने आश्रमो की स्थापना की | करजौली की भूमि पर एक भव्य मंदिर , विद्यालय भवन तथा छात्रावास का निर्माण की कल्पना को साकार रूप देने के लिए वे घूम - घूम कर संग्रह कर रहे थे कि अचानक अक्टूबर सन 1943 को उनका अज्ञात परिस्थितियों में परिनिर्वाण हो गया , बाद में अनाथाश्रम की देख रेख का दायित्व ग्राम सेवक दास तथा बिहारी दास ने संभाला , लेकिन योग्य उत्तराधिकारी के अभाव में अनाथाश्रम की भूमि असुरक्षित हो गई और समाजिक उत्थान का स्वप्न भी अधुरा रह गया | बाबा सरजू दास जी एक उच्च कोटि के सन्त भी रहे, इनके शिष्यों की लम्बी श्रृंखला मऊ, गाजीपुर जिलों के साथ दूर तक फैली हुई है जिनमे से अधिकाश आज भी आषाढ़ पूर्णिमा के दिन करजौली पहुँच कर अपनी कामना पूरी करते हैं | हमारा मध्यदेशीय कान्दू वैश्य समाज बाबा सरजू दास के द्वरा समाज हित में किये गए अप्रितम कार्यों एवं अध्यात्मिक चेतना का सदेव ऋण रहेगा |

🙏🙏 बाबा गणिनाथ महाराज जी की आरती 🙏🙏


ओम जय गणीनाथ देवा, ओम जय गणीनाथ देवा ||
पलटू गोविन्द ऋषि मुनि, ध्यावत गुरुदेवा ||
ओम जय गणीनाथ देवा .....

वेद ज्ञान के रवि तुम, ब्रहा ब्रहारसी द्रष्टा |
हम करते तेरो अर्चन, पावन युग स्त्रष्टा ||
ओम जय गणीनाथ देवा .....

कासायाम्बर अंगन, गल रुद्राक्ष साजै |
मस्तक तिलक सुशोभित, त्रिभुवन छवि छाजै ||
ओम जय गणीनाथ देवा .....

युगावतारी मनीषी, पलवईया वासी |
संत जनन गावै आरती, जय जय अविनाशी ||
ओम जय गणीनाथ देवा .....

सद्गुरु देव दयानिधि, मनसा शिवानंदन |
करुणा सागर तुम हो, करते पदवंदन ||
ओम जय गणीनाथ देवा .....

प्रेम की गंग बहाते, लहरे धर्मध्वजा |
सभी लोग अनुपम हो, तुम आजानू भुजा ||
ओम जय गणीनाथ देवा .....

संत शिरोमणी सद्गुरु, कृपादष्टि कर दो |
मानस मल को हरके, विमल भक्ति भर दो ||
ओम जय गणीनाथ देवा .....

धूप दीप श्रद्धा की, पान फूल मेवा |
भाव क भोग लगाऊ, जय सद्गुरु देवा ||
ओम जय गणीनाथ देवा .....

प्रेम कीजोत जलाकर, जो आरती गावै |
कहत 'दास' सुख सम्पति, मनवान्छित पावै ||
ओम जय गणीनाथ देवा .....

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

🌸 *श्री गोविन्द अभ्युदय*🌸

                                               *** ऊँ गनिनाथाय नमः ऊँ गोविन्दाय नमः ***

                                                         🌸 *श्री गोविन्द अभ्युदय*🌸


 

द्वापर युग में पृथ्वी पर जब अत्याचार और अन्याय के साथ पाप अपनी चरम सीमा पर था तो इसके विनाश के लिए भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में आज ही के दिन भाद्र कृष्ण पक्ष अष्टमी के मध्य काल मे अवतरण लिया था।

 हमारे घर परिवार में आज ही के दिन जन्माष्टमी को बाबु गोविन्द जी महाराज का जन्मदिवस या अवतरण दिवस पीढ़ियों से मनाते आ रहे है । हमारे पूर्वजोनुसार श्री गणिनाथ जी के प्रथम् पुत्र गोविन्द जी महाराज आज ही के दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। श्री गोविन्द जी महाराज विष्णु अवतारी थे । लोक गीतों में माता खेमा (क्षमा) सती के प्रसव वेदना का जिक्र मिलता है । दासी शेलखी माता खेमा सती (क्षमा सती) की सबसे मुंहबोली - प्रिय दासी है। माता खेमा सती के प्रसव की सूचना और चर्चा पलवाइया नगर में घर घर है। 

जब से माता खेमा सती गर्भवती हुईं हैं उनके शरीर से एक तेज पुंज और खुशबू निकलने लगता है , चेहरे की आभा पूनम के चांद के तरह चमकने लगा है। माता का अधिकांश समय पूजा पाठ योग और व्यायाम मे व्यतीत होता हैं। खेमा (क्षमा) सती को पूर्वाभास हो चुका है की कोख में पल रहा बच्चा विलक्षण प्रतिभा का धनी गणीनाथ जी का प्रतिरूप ही नहीं , राज्य का उत्तराधिकारी भी होगा। सुबह के बेला में चतुर्भुजी रूप बालक की आलौकिक सपनो से माता काफी रोमांचित हैं। 

प्रसव वेदना होने पर डगरीन को साय कालीन बगल के गाँव में सेलखी डोली लेकर बुलाने जाती है । बाबा गणिनाथ जी के मुख मंडल पर चिंता की रेखाओं के साथ सोने के खड़ाऊ पर प्रसव द्वार पर चहल कदमी कर रहें है जिसे गीत में इसका कई बार जिक्र किया गया है , डगरीन के अनुसार जब वह माता के पास जाती है तो उसकी आँखें तेज़ रोशनी से चौधिया जाता है और देखती है बालक जन्म ले चुका है और माता बेसुध अचेता अवस्था में है । शिशु के आभामंडल के प्रकाशपुंज से डगरिन डर जाती है और बच्चें को बिना स्पर्श किए दरवाजे से लौट जाती हैं। 

यही तेजस्वी , बाल बह्मचारी , सर्व शिक्षा और सर्व गुणों में निपुर्ण बालक भाद्र कृष्ण पक्ष अष्टमी मध्य रात्रि पश्चात जन्म या अवतरण लिया जिसे श्री गणिनाथ जी महाराज और माता खेमा (क्षमा) सती ने प्यार से *" गोविन्द "* नाम दिया । बाल बह्मचारी गोविन्द जी ने भी शिष्य परम्परा चलाया । आज बहुत सारे उनके शिष्यगण जन्माष्टमी को श्रीकृष्ण के प्रकोटशव के साथ श्री गोविन्द जी का जन्मोत्सव मनाते है जिसमे श्री गोविन्द जी , गणिनाथ जी , माता खेमा सती , दयाराम ,फेकू राम के साथ लाल खान की भी पूजा किया जाता है । घर परिवार के सारे सदस्य दिन मे अन्न जल ग्रहण नही करते और रात में महावीर जी का ध्वज दरवाजे पर पूजन पश्चात बदला जाता है और कुल देवताओं को आह्वान -पूजन होता है और अंत में भगवान कृष्ण के जन्म पश्चात पूजन और खुशियाँ मनाया जाता है । 

गोविन्द जी महाराज वेदों के ज्ञाता, धर्मपरायण, ज्ञानी, बाल ब्रह्मचारी, युद्ध कौशल मे निपूर्ण योद्धा थे। परिवार मे बड़े सदस्य होने के बावजूद राज्य सुख त्याग कर अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध युद्ध किया जैसे भगवान श्री कृष्ण ने अपनी भूमिका समाज को दिया था। बाबा गणिनाथ जी यदि मस्तिष्क थे तो गोबिंद जी उनकी भुजाएं। गोबिंद जी के कार्यकाल की सबसे महत्वपूर्ण घटना सुलतान खां, किश्ती खां और बकर खां अतातायीयो को मौत के घाट उतार कर लाल खां को बंदी बना कर बाबा के चरणों मे समर्पित करना हैं।गोविंद जी ने समाज मे व्याप्त सभी बुराइयों के विरुद्ध जैसे टोना टोटका, तंत्र मंत्र का दुरुपयोग , अंधविश्वास, अशिक्षा, समाज में बिखराव आदि के संग समाजिक अनुशासन के लिए "मान्यजन" व्यवस्था को मान्यता दिया। वर्तमान में यू पी, बिहार, झारखण्ड आदि प्रदेशो मे विलुप्त हों गया है परंतु नेपाल के कई जगहों पर देखने को मिलता हैं।

बाबा गणिनाथ जी का संपूर्ण परिवार गुरु शिष्य परंपरा मे सुदृढ़ता पूर्वक जीवन्त रहा हैं माता सती, बहने, बौधा बाबा आदि की भूमिका राज्य में बाबा गणिनाथ गोविंद जी महाराज के संग गुरुकुल, जन कल्याण मे सदैव देखने को मिला है। जहा तक मेरा व्यक्तिगत मान्यता है कानू, कांदू, हलवाई आदि के कई घरों में " सती " और "सती -बंदी " की कूल देवता/ देवी के रुप मे पूजन की मान्यता है। ये कोई और नहीं श्री गणिनाथ गोविंद जी कूल परिवार के सती (खेमा/क्षमा) और दोनो बहने
" बंदी" आप्रभांषित शब्द है।

उत्तर भारत - नेपाल में अधिसंख्य घरों में गोबिंद जी को कूल देवता के रूप में पूजन जन्माष्टमी को किया जाता है। मैथिली भोजपुरी, बज्जिका, मगही, अंगिका आदि लोक गीतों में गोबिंद जन्मोत्सव का विवरण विस्तृत रूप मे मिलता है जो आज भी प्रासंगिक हैं।

आप सभी को श्री गोविन्द जन्मोत्सव पर हार्दिक बधाई व शुभकामनाये । आप सभी के मन वांछित मनोकामनाएं पूर्ण हो।


✍️रवींद्र कुमार मद्धेशीय
      नजफगढ़, नई दिल्ली

सोमवार, 15 अगस्त 2022

*** श्री लाल ख़ाँ ****

                                                               

                                                               *** श्री लाल ख़ाँ ****

जब कभी भी महान कर्मयोगी , संत प्रवर , समाज -सुधारक, महात्मा बाबा गणिनाथ जी अथवा गोविन्द जी महाराज की चर्चा होती है तो लाल खाँ का उल्लेख अवश्य मिलता है । सन्तों का जीवन समस्त जीवों , मानव कल्याण एव मानवता के लिए समर्पित होता है तथा ये जाति , सम्प्रदाय के बन्धनों से ऊपर उठकर होते है । महात्मा श्री गणिनाथ जी -गोविन्द जी के कथावृति से कर्मण्य लोकनायक , दार्शनिक , विचारक , समतामूलक समाज के समर्थक , योग एव औषधीय ज्ञान के मर्मज्ञ ज्ञाता थे । आज भी समाज में बाबा गणिनाथ जी -गोविन्द जी को कूल देवता और कूल गुरु के रूप में मान्यता प्राप्त है और पूजे जाते है ।

बाबा गणिनाथ जी द्वारा स्थापित " धर्मपुर राज्य पलवैया " की धन -धान्य , वैभव , सुख शांति और समिर्द्धि की चर्चा चारो तरफ थी । धर्मपुर राज्य पलवैया पर अगल बगल के जागीरदारों में ललचाई कुदृष्टि पड़ गयी थी । बाबा गणिनाथ जी वृद्ध हो चुके थे तथा साधू -सन्त स्वभाव वश ये दुष्ट लोग पलवैया को कमजोर राज्य समझ बैठे थे । ये लोग पलवैया को समूल नष्ट कर देना चाहते थे । इसमें से लाल ख़ाँ , किश्ती खाँ , बक्कर खाँ , सुल्तान खाँ आदि यवनो जगिरदारो -सेनापतियों ने पलवैया राज्य पर आक्रमण कर दिया ।

शान्ति , प्रेम अहिंसा का सदैव पाठ पढानेवाले बाल ब्रह्मचारी श्री गोविन्द जी महाराज ने पलवैया के शांतिप्रिय नागरिको को धर्म और राष्ट्र की रक्छा के लिए शस्त्र उठाने के लिए ललकारा , उनकी ओजस्वी धर्म शिक्छा या उपदेश से जनता मरने मारने पर तैयार हो गयी । इस युद्ध को गोविन्द जी ने " धर्मयुद्ध " का नाम दिया । कुछ लोगो को गढ़ (किला) के अंदर रक्छा के लिए छोड़ दिया और शेष को श्रीधर जी , रायचंद्र जी के साथ स्वयं के नेतृत्व में यवनो से लोहा लेने के लिए युद्ध छेत्र के लिए प्रस्थान किये ।आज भी गढ़ बाहर और गढ़ भीतर की चर्चा होती है ।

यवनों का नेतृत्व लाल खाँ नामक अधिनायक कर रहा था , वह बड़ा ही शूरवीर और लड़ाकू था । श्री गोविन्द जी के साथ भयंकर युद्ध होता है जिसमे मलेच्छ यवन बुरी तरह से परास्त होते है , अधिसंख्य मृत्यु को प्राप्त करते है । साथ ही उनका मुख्य सेनापति लाल खाँ बहादुरी से लड़ता है और अन्तः गम्भीर घायलावस्था में गिरफ्तार कर लिया जाता है । इस युद्ध में गोविन्द जी महाराज भी घायल हो जाते है तो अनुचर मृदुल ठंडा जल पीने को लेकर आते है ।परन्तु बगल में कराहता शत्रु लाल खाँ अत्यधिक घायल अवस्था में पानी मांग रहा है उसे देने को बोलते है । पानी पाकर लाल खाँ में दया और कृतज्ञता का भाव उत्पन्न होता है । गोविन्द जी महाराज अपनी सेवा सुश्रुषा से उसे भला चंगा भी कर देते है । 

लाल खाँ इस प्रेम , मानवीय सेवा से अभिभूत हो जाता है और उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है । बाबा गणिनाथ जी के चरणों में गिरकर जीवनदान माँगता है । बाबा गणिनाथ जी दयालुता और छमा का आदर्श रखते हुए माफ़ कर देते है और शिष्य बना लेते है तथा अपने मुख्य द्वार का पहरेदार नियुक्त कर देते हैं । बाबा अपने अनुचरों को आदेश देते है की जो भी मेरा भोजन होगा उसी में से लाल खाँ को प्रसाद के रूप में भोजन दिया जाएगा । जीवनपर्यन्त लाल खाँ ने बाबा की पूर्ण निष्ठां से सेवा किया । लाल खाँ एक हिन्दू मन्दिर की रक्छा करते हुए वीरगति को प्राप्त किया । यह हिन्दू मुस्लिम दोनों सम्प्रदायो के आपसी सौहार्द , मानवीय प्रेम और पूर्ण समर्पण का अप्रतिम उदाहरण है ।

आज भी जिस घर , मन्दिर में गणिनाथ - गोविन्द जी की पूजा होती है, वहाँ दयाराम , फेकू राम और लाल खान की पूजा अनिवार्य है ।दया राम और फेकू राम बाबा के परम् शिष्य के रूप मे अलग से पूजा की जाती हैं । वही पूजा घर या मन्दिर के बाहर लाल खाँ का भी चढ़ौना चढ़ाया जाता हैं । मांगलिक या शुभ कार्यो के अवसर पर जब अन्य देवी देवताओ की स्तुति की जाती है तो उस समय लाल खाँ से भी यज्ञ कार्य निर्विघ्न सम्पादित कराने हेतु प्रार्थना किया जाता हैं । पूजा के अवसर पर शुद्ध घी शक्कर से बना रोट चढ़ाया जाता है । श्री गणिनाथ जी - गोविन्द जी उच्च वर्ग , पिछड़ा वर्ग , हरिजन , खनाबदोष में कूल देवता के रूप में पूजे जाते है और सभी जगह लाल खाँ जी का उचित स्थान देखने को मिलता है ।
साथ ही साथ पलवैया धाम , राजेन्द्र नगर , पटना , घघा घाट , माड़ी पुर ,मुजफ्फरपुर , मगरदहि सम्मस्ती पुर , गया, नेपाल , दिल्ली आदि बाबा के मन्दिरो में लाल खाँ जी की पूजा देखने को मिलता है ।

NOTE-- लाल खाँ जी पर अंगिका , मगही , भोजपुरी , मैथली लोकगीतों में गीत मिलता है जिसे पूजन के समय माता बहने आज भी गाती है । श्री भोला नाथ मधुकर , डा सरोज प्रधान , अपनी वाणी , विभिन्न स्मारिका पुस्तको , गणींनाथ गोविन्द जी पत्रिका , उत्थान , गणिनाथ गोविन्द जी सम्वाद आदि पत्रिकाओ से साभार ।

लोक देवता और समता मूलक समाज के प्रणेता- श्री गणिनाथ जी ।



                                लोक देवता और समता मूलक समाज के प्रणेता- श्री गणिनाथ जी ।

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विभिन्न ज्ञानी , विद्वतजनों एव लोकगीतों के माध्यम से बाबा गणिनाथ जी के जीवन चरित्र का दर्शन होता है। जैसा विदित है बाबा का पदार्पण भूलोक पर बिहार के वैशाली ज़िला मे बौद्ध कालिन के अस्ताचल और विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं का भारत मे आगमन हो चुका था। बंगाल आदि प्रदेशो में मुस्लिम शासकों का शासन काल चल रहा था।

संत परम्परा के कड़ियों में इतिहासकारों ने इस महान दिव्य आत्मा को स्थान नहीं दिया है परंतु उनकी मानवता की सेवा का उल्लेख लाखों लाख़ अनुयायियों की लोकगीतों के माध्यम से जुबान पर है। उच्च कोटि के संत परम्परा के अनुकूल जाति, धर्म से परे उठकर मानवता , समतामूलक समाज के सृजन को जन मानस में प्रोत्साहित किया। दया, क्षमा , त्याग के प्रतिमूर्ति मानवीय अवगुणों लोभ - लालच, क्रोध, द्वेष से सदैव दूर रह कर आमजन के मध्य आदर्श प्रस्तुत किया है। आपकों विदित है की पलवैया के राजा होने के बावजूद गृहस्थ जीवन और संत परम्परा का अक्षरतः पालन किया है।

भारत के प्राचीन ऋषि गुरुकूल परम्परा को जीवन्त रखते हुए पलवैया को उच्चकोटि के शिक्षा का केन्द्र स्थपित किया था जिसमें धर्मशास्त्रों, ज्योतिष, खगोलीय, औषधिय, ध्यान- योग, वेद, तंत्र मंत्र आदि शिक्षा का समुचित जानकारी मिलता है। आपका सम्पूर्ण परिवार गुरु सिख परंपरा से संबद्ध रहा है जिसमें आपके प्रथम पुत्र गोविन्द जी महाराज के अनुयायी, पत्नी माता खेमा सती के पूजक सति और दोनो पुत्रियों बंदी और बौधा बाबा को कूल देवता या देवी के रूप मे पूजक सर्व जातीय समाज में मिलते हैं।

श्री गणिनाथ जी के चमत्कार की कई जीवंत कहानियां आज भी भक्तजनों से मिल जाता हैं। वैदिक धर्म के पक्षधर व पालक कूलगुरू जी महाराज ने समाज में व्याप्त गलतियों को सुधार करने के लिए *मांजन्य* व्यवस्था को लागू किया जो आज भी नेपाल के तराई क्षेत्र में देखने को मिलता है, उपनयन संस्कार की अनिवार्यता , मांस मदिरा , पशुओं के बंध्याकरण पर रोक आदि के साथ समाज में *मूल डीह* प्रचलन से आधुनिक काल के वैज्ञानिक सम गोत्रीय विवाह के दोष से बचाव किया था।

बाबा गणिनाथ गोविंद जी ने अपने भक्तों व अनुयायियों को पार्थिव- पिंड स्वरूप में पूजन का महत्व दिया जिसमे पाँच तत्वों के समिश्रण से साधक को नव ऊर्जा (ऊष्मा) का संचार होता है, स्थूल पिण्ड पूजन से घर परिवार में सदैव सुख शान्ति, बाहरी आपदा विपदा से रक्षा गुरु कृपा बनी रहती हैं, इस लोक में यश-कृपा, वैभव प्राप्त करने के साथ मृत्यु उपरांत जीवन मरण के चक्कर से मुक्ति पा जाते हैं। पलवैया धाम के पंडा गण प्रसाद स्वरूप पलवैया की मिट्टी अपने भक्तजनों को देते है जिसका भक्तजन अपने गोहबर मे स्थापित पिंड पर लेप चढ़ाते है और ललाट पर त्रिपुंड या टीका कर परमपूज्य संत शिरोमणि बाबा गणिनाथ गोविंद का स्मरण करता है।

बाबा गणिनाथ महाराज जी के चौदह दिवान।।



बाबा गणिनाथ महाराज जी का प्रकाट्य शनिवार को हुआ था। इसलिए शादी-विवाह व मांगलिक कार्य में उनकी विशेष पूजा शनिवार को होती है। जिसे सुंदरी पूजा कहते हैं। 

सुन्दरी पूजा में चौदह देवताओं की पूजा होती है। 

1- बाबा गणिनाथ, 
2- माता क्षेमा सती, 
3- श्रीगोविन्द जी, 
4- श्रीरामचन्द्र जी, 
5- श्रीधर जी, 
6- सोनामती, 
7- शीलामती, 
8- चतुरी बहुरिया, 
9- बिजली बहुरिया, 
10- श्रीसहदेव राय, 
11- जगन्नाथ राय, 
12- श्रीबोध महापति राय, 
13- श्रीचवुपाणि राय, 
14- नीलकंठ राय 

की पूजा होती है। बाबा गणिनाथ समाज में प्रेम, सद्भाव, सेवा, त्याग तथा परोपकार का संदेश देते थे। मदिरा, मांस, व्यभिचार से बचने का संदेश देते थे।

शुक्रवार, 12 अगस्त 2022

🙏 बाबा गणिनाथ महाराज जी 🙏



परमपूज्य बाबा गणिनाथ जी इस भूलोक में धर्म कि रक्षा, मानवता का संदेश और आपस में बढ़ रही वैमनस्यता को दूर करने के लिए अवतरित हुए थे. भगवान शिव जी के परम भक्त श्री मंशाराम महनार (वैशाली) में गंगा के किनारे अपनी एक कुटिया में सपत्नीक रहते थे.मंशाराम जी सात्विक और धार्मिक विचारों को मानने वाले थे.वे अपने गृहस्थ जीवन के साथ साथ अपने भोले बाबा की सदैव उपसना किया करते रहते थे. उनका अपना जीवन से खुश रहते थे. संतानहीन होने बाद भी अपने इश्वेर पर पूरी तरह से विश्वास था. इसी विश्वास और मंशाराम की भक्ति से भोले बाबा प्रशन्न होकर एक रात उनके सपने आये और कहा कि “ जल्द ही आपको आपकी भक्ति और विश्वास का फल मिलेंगा.”
मंशाराम नित्य प्रतिदिन की तरह लकड़ी लेने के लिए वन में गए. भीतर वन में पहुचने पर मंशाराम क्या देखते है कि एक बालक पीपल के पेड़ के नीचे किलकारी कर रहा है, उसके चेहरे से अद्भुत अलौकिक दिव्य प्रकाश निकाल रहा है, बालक मंद मंद मधुर मुस्करा रहा है,तभी बालक के अद्भुत अलौकिक दिव्य प्रकाश के प्रभाव से उस पीपल के पेड़ से मधु की बूंदे निकल कर बालक के मुँख में जा रही थी और वह बालक उस मधु को बड़े चाव से मधुपान करने लगे.बालक के इसी अद्भुत अलौकिक दिव्य प्रकाश का प्रभाव ही था वन में सारे जीव जंतु खुश होकर इधर उधर विचरण करने लगे.
मंशाराम इस द्रश्य को देखकर भावविभोर हो कर अपनी सुधभुध खो बैठे.तभी आकाशवाणी होई कि “मंशाराम, ये है तुमारी भक्ति का फल, इस बालक को अपने घर ले जाओ और इसे अपने पुत्र की तरह पालन करो”. मंशाराम उस बालक को अपनी गोद में लिया और अपने कुटिया में पहुँच कर और पत्नी से बोले यह बालक अपना है भोले बाबा ने तुम्हरी गोद भर दी. बालक के अद्भुत अलौकिक दिव्य प्रकाश के कारण गांव में समृधि बढ़ने लगी. मंशाराम जी की इच्छा थी कि अपने स्वजनों को भोज में तसमई खिलाए पर वे अपने इस इच्छा को पूरी नही कर पा रहे थे अगर इस कार्य में कोई बाधा थी वो था धन जो मंशाराम के पास पर्याप्त नहीं था.
बालक अपनी पिता की इस इच्छा को जानकर सभी स्वजनों को निमंत्रण भेजा. निमंत्रण स्वजनों को मिलने की सूचना मिल गयी यह जानकर मंशाराम ने भोज की तैयारी करने लगे. भोज को तैयार करने वास्ते पर्याप्त बर्तन मंशाराम के पास नहीं थे, और बर्तन के लिए वे कुम्हार के पास गए और बर्तन माँगा, कुम्हार मंशाराम की आर्थिक को जानकर बहाने बना कर बर्तन देने से मना कर दिया.मंशाराम उदास हो गए, पिता की उदासी को देख कर बालक ने अपनी लीला दिखाई. वही कुम्हार जब अपने बर्तन को पकाने के लिए आव लगाया तो वो जला ही नहीं, लाख प्रयतन करने पर भी आव नहीं जला तो नहीं जला.
तभ कुम्हार हार कर अपने इश्वर को स्मरण किया इश्वर ने उसकी की गयी गलती को बताया, अपनी गलती को जानकर, कुम्हार भाग कर बालक के चरणों में लेट गया और भूल को स्वीकार किया.बालक ने उसकी इस गलती को क्षमा कर दिया. कुम्हार का आव लग गया, बर्तन मंशाराम को दिया.बर्तन की व्यवस्था हो जाने के बाद मंशाराम दूध के लिए ग्वाले के पास गए, ग्वाला जो काना था उसने भी बहाना बनाकर दूध देने से मना कर दिया. और एक गाय जो दूध ही नहीं देती थी, की ओर इशारा कर कहा उसे ढूह लो और ढूध ले लो, बालक जो मंशाराम के साथ थे फिर अपनी लीला दिखाई और उसी गाय ने इतना दूध दिया कि ग्वाला आश्चर्यचकित हो गया, और वह समझ गया कि यह बालक साधारण बालक नहीं है, तुरंत बालक के चरणों में लेट गया,और क्षमायाचना की बालक ने क्षमा कर दिया और उसकी आँख भी ठीक कर दी.
तय समय पर भोज में तसमई पकाई गयी और तसमई को सभी लोगो ने खाया और इसकी स्वाद की महक से आस पास के लोग भी आने लगे, पर यह तसमई कम नहीं पडी. सभी ने इसका आनंद लिया. बालक की इस लीला को देख कर सभी लोग भोले बाबा की जयकरा लगाया और बालक का नाम गणिनाथ रखा और जय जयकर किया. बालक गणिनाथ ने तपस्या करने के लिए पिता मंशाराम से अनुमति मांगी, अनुमति मिलने पर तपस्या के लिए हिमालय पर्वत पर गए और पूरे अठ्ठारह वर्षों तक तपस्या की.तपस्या और योग से गणिनाथ जी ने आठ सिद्धि और नौ निधि को प्राप्त किया. गणिनाथ जी तपस्या पूरी करने के बाद वापस अपने गांव आये और एक यज्ञ का आयोजन किया.

यज्ञ के उपरांत सभी लोगो चार संदेश दिया: 
1. वेदों का अध्यन करे. 
2. सच्चाई और धर्म का पालन करे. 
3. काम, क्रोध, लोभ, अभिमान और आलस्य का त्याग करे. 
4. नारी का सम्मान और उसकी रक्षा करे.

बाबा गणिनाथ जी का उपदेश सरल था जिसे सुनने के लिए आस-पास से लोगबाग आने लगे, और बाबा के आशीर्वाद से उनके जीवन सरल और सुगम हो गया. बाबा गणिनाथ जी के उपदेश और जीवन संदेश से वैशाली के राजा धरमपाल भी प्रभावित होकर पलवैया के आस पास की सारी जमींन बाबा के चरणों में समर्पित कर दिया. और पलवैया का राजा घोषित कर दिया.
बाबा गणिनाथ जी का विवाह राजा चक्रधर की पुत्री क्षेमा जी से हुआ.बाबा गणिनाथ जी कि ही तरह माता क्षेम भी धर्म का पालन और उसकी रक्षा करने वाली थी. बाबा जी और माता क्षेमा जी के अपने परिवार में पांच संतान क्रमश: रायचंद्र, श्रीधर, गोबिंद, सोनमती एयर शीलमती थे.बाबा गणिनाथ जी कि ही तरह पांचो भाई-बहन वेद, शस्त्र और शास्त्र में प्रवीणता प्राप्त थी. बाबा गणिनाथ जी राज्य चौदह कोस तक फैला था.
एक बार राज्य के कदली वन में डाकुओं ने बसेरा बना कर कदली वन से गुजरने वाले को लूट कर मार देते थे. इस डाकूओं का सफाया करने के लिए रायचन्द्र और श्री धर के नेतृत्व में सेना भेजी और उन डाकूओं का समूल नाश किया गया. बाबा के राज्य में जादू टोना करने वाले से राज्य के लोग परेशान हो रहे थे और इसके दुष्प्रभाव से धर्म कार्य में बाधा आ रही थी .अपने राज्य के लोग को जादू-टोना करने वाले से मुक्ति दिलाने के लिए बाबा गणिनाथ जी ने गोविन्द जी को भेजा , गोविन्द जी जे अपने योग तपबल से इन सभी मायावी शक्तियों का नाश किया. पलवैया राज्य के बाहर यवनों का अत्याचार बढ़ रहा गया था, यवनों के अत्याचार के कारण लोगबाग अपने धर्म कार्य नहीं कर पा रहे थे.
इन यवनों से मुक्ति दिलाने के लिए बाबा गणिनाथ जी ने एक सेना तैयार की, इस सेना में लोगो का आहवाहन किया और ३६० जगह के लोग इस सेना में शामिल हुए(समाज के मूलडीह इन्ही ३६० जगहों के नाम पर आधारित है). इस सेना का नेतृत्व श्री रायचन्द्र और श्रीधर को सौपा और यवनों से लड़ने के लिए भेजा. बाबा कि सेना और यवनों में भयंकर युद्ध हुआ, और युद्ध के बीच में गोबिंद जी के भी आने से सेना में दुगना उत्साह बढ़ गया और यवन युद्ध हार गए. यवनों का सरदार बाबा गणिनाथ जी के तपबल और योगशक्ति से इतना प्रभावित हुआ कि जीवनपर्यंत उनका शिष्य बनकर उनकी सेवा करता रहा. बाबा गणिनाथ जी और माता क्षेमा के साथ गंगा में समाधी ली. और आज उस स्थान एक देव स्थान के रूप में पूजनीय स्थल है.

BABA GANINATH PHOTO








रविवार, 7 नवंबर 2021

💐💐💐 पल्टू बनिये प्रभु की कृपा 💐💐💐

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                पलटू बनिये पर कृपा

          श्री अयोध्या जी में 'कनक भवन' एवं 'हनुमानगढ़ी' के बीच में एक आश्रम है जिसे 'बड़ी जगह' अथवा 'दशरथ महल' के नाम से जाना जाता है। काफी पहले वहाँ एक सन्त रहा करते थे जिनका नाम था श्री रामप्रसाद जी। उस समय अयोध्या जी में इतनी भीड़ भाड़ नहीं होती थी। ज्यादा लोग नहीं आते थे। श्री रामप्रसाद जी ही उस समय बड़ी जगह के कर्ता धर्ता थे। 
          वहाँ बड़ी जगह में मन्दिर है जिसमें पत्नियों सहित चारों भाई (श्री राम, श्री लक्ष्मण, श्री भरत एवं श्री शत्रुघ्न जी) एवं हनुमान जी की सेवा होती है। चूंकि सब के सब फक्कड़ सन्त थे .... तो नित्य मन्दिर में जो भी थोड़ा बहुत चढ़ावा आता था उसी से मन्दिर एवं आश्रम का खर्च चला करता था।
           प्रतिदिन मन्दिर में आने वाला सारा चढ़ावा एक बनिए को (जिसका नाम था पलटू बनिया) भिजवाया जाता था। उसी धन से थोड़ा बहुत जो भी राशन आता था.... उसी का भोग-प्रसाद बनकर भगवान को भोग लगता था और जो भी सन्त आश्रम में रहते थे वे खाते थे।
          एक बार प्रभु की ऐसी लीला हुई कि मन्दिर में कुछ चढ़ावा आया ही नहीं। अब इन साधुओं के पास कुछ जोड़ा गांठा तो था नहीं... तो क्या किया जाए ..? कोई उपाय ना देखकर श्री रामप्रसाद जी ने दो साधुओं को पलटू बनिया के पास भेज के कहलवाया कि भइया आज तो कुछ चढ़ावा आया नहीं है... अतः थोड़ा सा राशन उधार दे दो... कम से कम भगवान को भोग तो लग ही जाए। पलटू बनिया ने जब यह सुना तो उसने यह कहकर मना कर दिया कि मेरा और महन्त जी का लेना देना तो नकद का है... मैं उधार में कुछ नहीं दे पाऊँगा। ('श्रीजी की चरण सेवा' की ऐसी ही आध्यात्मिक, रोचक एवं ज्ञानवर्धक पोस्टों के लिये हमारे फेसबुक पेज के साथ जुड़े रहें)
           श्री रामप्रसाद जी को जब यह पता चला तो "जैसी भगवान की इच्छा" कहकर उन्होंने भगवान को उस दिन जल का ही भोग लगा दिया। सारे साधु भी जल पी के रह गए।
           प्रभु की ऐसी परीक्षा थी कि रात्रि में भी जल का ही भोग लगा और सारे साधु भी जल पीकर भूखे ही सोए।
          वहाँ मन्दिर में नियम था कि शयन कराते समय भगवान को एक बड़ा सुन्दर पीताम्बर उढ़ाया जाता था तथा शयन आरती के बाद श्री रामप्रसाद जी नित्य करीब एक घण्टा बैठकर भगवान को भजन सुनाते थे। पूरे दिन के भूखे रामप्रसाद जी बैठे भजन गाते रहे और नियम पूरा करके सोने चले गए।
           धीरे-धीरे करके रात बीतने लगी। करीब आधी रात को पलटू बनिया के घर का दरवाजा किसी ने खटखटाया। वो बनिया घबरा गया कि इतनी रात को कौन आ गया। जब आवाज सुनी तो पता चला कुछ बच्चे दरवाजे पर शोर मचा रहे हैं–'अरे पलटू... पलटू सेठ ... अरे दरवाजा खोल...।' उसने हड़बड़ा कर खीझते हुए दरवाजा खोला। सोचा कि जरूर ये बच्चे शरारत कर रहे होंगे... अभी इनकी अच्छे से डांट लगाऊँगा।
           जब उसने दरवाजा खोला तो देखता है कि–चार लड़के जिनकी अवस्था बारह वर्ष से भी कम की होगी .... एक पीताम्बर ओढ़ कर खड़े हैं।
          वे चारों लड़के एक ही पीताम्बर ओढ़े थे। उनकी छवि इतनी मोहक .... ऐसी लुभावनी थी कि ना चाहते हुए भी पलटू का सारा क्रोध प्रेम में परिवर्तित हो गया और वह आश्चर्य से पूछने लगा–'बच्चों ...! तुम हो कौन और इतनी रात को क्यों शोर मचा रहे हो...?'
           बिना कुछ कहे बच्चे घर में घुस आए और बोले–हमें रामप्रसाद बाबा ने भेजा है। ये जो पीताम्बर हम ओढ़े हैं... इसका कोना खोलो... इसमें सोलह सौ रुपए हैं... निकालो और गिनो।'
           ये वो समय था जब आना और पैसा चलता था। सोलह सौ उस समय बहुत बड़ी रकम हुआ करते थे। जल्दी-जल्दी पलटू ने उस पीताम्बर का कोना खोला तो उसमें सचमुच चांदी के सोलह सौ सिक्के निकले। प्रश्न भरी दृष्टि से पलटू बनिया उन बच्चों को देखने लगा। तब बच्चों ने कहा–'इन पैसों का राशन कल सुबह आश्रम भिजवा देना।'
          अब पलटू बनिया को थोड़ी शर्म आई–'हाय...! आज मैंने राशन नहीं दिया... लगता है महन्त जी नाराज हो गए हैं... इसीलिए रात में ही इतने सारे पैसे भिजवा दिए।' पश्चाताप, संकोच और प्रेम के साथ उसने हाथ जोड़कर कहा–'बच्चों..! मेरी पूरी दुकान भी उठा कर मैं महन्त जी को दे दूँगा तो भी ये पैसे ज्यादा ही बैठेंगे। इतने मूल्य का सामान देते-देते तो मुझे पता नहीं कितना समय लग जाएगा।'
          बच्चों ने कहा–'ठीक है... आप एक साथ मत दीजिए... थोड़ा-थोड़ा करके अब से नित्य ही सुबह-सुबह आश्रम भिजवा दिया कीजिएगा... आज के बाद कभी भी राशन के लिए मना मत कीजिएगा।' पलटू बनिया तो मारे शर्म के जमीन में गड़ा जाए।
           वो फिर हाथ जोड़कर बोला–'जैसी महन्त जी की आज्ञा।' इतना कह सुन के वो बच्चे चले गए लेकिन जाते-जाते पलटू बनिया का मन भी ले गए।
          इधर सवेरे सवेरे मंगला आरती के लिए जब पुजारी जी ने मन्दिर के पट खोले तो देखा भगवान का पीताम्बर गायब है। उन्होंने ये बात रामप्रसाद जी को बताई और सबको लगा कि कोई रात में पीताम्बर चुरा के ले गया।
           जब थोड़ा दिन चढ़ा तो गाड़ी में ढेर सारा सामान लदवा के कृतज्ञता के साथ हाथ जोड़े हुए पलटू बनिया आया और सीधा रामप्रसाद जी के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा।
           रामप्रसाद जी को तो कुछ पता ही नहीं था। वे पूछें–'क्या हुआ... अरे किस बात की माफी मांग रहा है।' पर पलटू बनिया उठे ही ना और कहे–'महाराज रात में पैसे भिजवाने की क्या आवश्यकता थी... मैं कान पकड़ता हूँ आज के बाद कभी भी राशन के लिए मना नहीं करूँगा और ये रहा आपका पीताम्बर... वो बच्चे मेरे यहाँ ही छोड़ गए थे.... बड़े प्यारे बच्चे थे... इतनी रात को बेचारे पैसे लेकर आ भी गये... आप बुरा ना मानें तो मैं एक बार उन बालकों को फिर से देखना चाहता हूँ।'
          जब रामप्रसाद जी ने वो पीताम्बर देखा तो पता चला ये तो हमारे मन्दिर का ही है जो गायब हो गया था। अब वो पूछें कि–'ये तुम्हारे पास कैसे आया?' तब उस बनिया ने रात वाली पूरी घटना सुनाई। अब तो रामप्रसाद जी भागे जल्दी से और सीधा मन्दिर जाकर भगवान के पैरों में पड़कर रोने लगे कि–'हे भक्तवत्सल...! मेरे कारण आपको आधी रात में इतना कष्ट उठाना पड़ा और कष्ट उठाया सो उठाया मैंने जीवन भर आपकी सेवा की .... मुझे तो दर्शन ना हुआ ... और इस बनिए को आधी रात में दर्शन देने पहुँच गए।'
           जब पलटू बनिया को पूरी बात पता चली तो उसका हृदय भी धक् से होके रह गया कि जिन्हें मैं साधारण बालक समझ बैठा वे तो त्रिभुवन के नाथ थे... अरे मैं तो चरण भी न छू पाया। अब तो वे दोनों ही लोग बैठ कर रोएँ।
           इसके बाद कभी भी आश्रम में राशन की कमी नहीं हुई। आज तक वहाँ सन्त सेवा होती आ रही है। इस घटना के बाद ही पलटू बनिया को वैराग्य हो गया और यह पलटू बनिया ही बाद में श्री पलटूदास जी के नाम से विख्यात हुए।
          श्री रामप्रसाद जी की व्याकुलता उस दिन हर क्षण के साथ बढ़ती ही जाए और रात में शयन के समय जब वे भजन गाने बैठे तो मूर्छित होकर गिर गए। संसार के लिए तो वे मूर्छित थे किन्तु मूर्च्छावस्था में ही उन्हें पत्नियों सहित चारों भाइयों का दर्शन हुआ और उसी दर्शन में श्री जानकी जी ने उनके आँसू पोंछे तथा अपनी ऊँगली से इनके माथे पर बिन्दी लगाई जिसे फिर सदैव इन्होंने अपने मस्तक पर धारण करके रखा। उसी के बाद से इनके आश्रम में बिन्दी वाले तिलक का प्रचलन हुआ।
           वास्तव में प्रभु चाहें तो ये अभाव... ये कष्ट भक्तों के जीवन में कभी ना आए परन्तु प्रभु जानबूझकर इन्हें भेजते हैं ताकि इन लीलाओं के माध्यम से ही जो अविश्वासी जीव हैं... वे सतर्क हो जाएं... उनके हृदय में विश्वास उत्पन्न हो सके।
           जैसे प्रभु ने आकर उनके कष्ट का निवारण किया ऐसे ही हमारा भी कर दें। लिखने में जहाँ-जहाँ जो जो त्रुटियाँ रह गईं हैं, उनके लिए दया के सिन्धु वैष्णव जन हमें क्षमा करें।
                            
                  "सियापति श्रीरामचन्द्र की जय

शुक्रवार, 17 सितंबर 2021

कानू (हलुवाई) जाति के गोत्र, इष्टदेव एवं कुलदेव



 कानू (हलुवाईजाति के गोत्रइष्टदेव एवं कुलदेव

कानू (हलुवाई) जाति कश्यप गोत्र के माने जाते हैं । हलुवाई अपने इष्टदेव के रूप में मोदनसेन, यज्ञसेन, गणीनाथ तथा अन्य विभुतियों को पुजते हैं । वे विभिन्न देवी–देवता के रूप में गणपति, सूर्य, अग्नि, काली बन्दी का आराधना करते हैं । मूलतः हलुवाई के वंशज तीन सांस्कृतिक समूहों में होने का वर्णन अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा के वेबसाइट पर पाया गया है । मोदनसेनी हलुवाई मोदनसेन जी महाराज को, यज्ञसेनी हलुवाई यज्ञसेन जी महाराज को तथा मधेशी हलुवाई गणीनाथ जी महाराज से अपना वंश वृक्ष जुड़ा होने का विश्वास करते हैं । मोदनसेन जी कान्यकुब्ज (कन्नौज, उत्तरप्रदेश) में अवतरित हुए । यज्ञसेन जी बिठूर कानपुर (उत्तर प्रदेश) में अवतरित हुए । गणीनाथ जी गुरलामान्धता पर्वत पलवैया (बिहार) में अवतरित हुए । इसी क्षेत्रीय धरातल पर इनके वंशजों का विस्तार हुआ । अर्थात गणीनाथ, मोदनसेन और यज्ञसेन जी महराज तीनों समूह के कुलदेवता के रूप में पूजित होने का वर्णन पाया जाता हैं ।

वैश्य वंशवृक्ष की जड़ में मूल देवता भलनन्दन जी महाराज हैं । उपर अंकित श्लाकों के अनुसार प्रजापति ब्रह्मा के उरू देश से उत्पन्न भलनन्दन के पौत्र के रूप में मोदन उत्पन्न हुए । प्रजापति के द्वारा आयोजित यज्ञ में मोदनसेन जी महाराज को खाद्य–व्यवसायी (हलवाई) का चरित्र प्रदान किया गया उल्लेख होने से उनका वंशज मोदनसेनी (मोदनसेनी हलवाई) कहलाए । उसी तरह राजा दक्ष के यज्ञ के क्रम में यज्ञसेन उत्पन्न हुए । यज्ञसेन के वंशजो द्वारा यज्ञ–निर्मित पदार्थों को व्यापार करने के कारण यज्ञसेनी (यज्ञसेनी हलवाई) कहलाए । संत गणीनाथ एघारवीं सदी में उत्पन्न हुए । वे शिव की अवतार कहलाते हैं । गणीनाथ जी का पिता मनसा राम जी हलुवाई के १४ कुलदेवों में पूजित हैं । आस्था के आधार पर हलवाई जाति में कुलदेवता निम्न प्रकार हैं —

१.      हलवाई (मोदनवाल) ः मोदनसेन जी महाराज

२.      हलवाई (यज्ञसेनी) ः यज्ञसेन जी महाराज

३.      कानू हलवाई ः गणीनाथ जी महाराज

४.      कान्य कुब्ज वैश्य (भूर्जि) ः बाबा पलटू दास

५.      भौज्य हलवाई ः चन्द्रदेव जी महाराज

६.      क्रोंच हलवाई ः कंकाली बाबा

७.      गुडिया वैश्य ः यह घटक उड़ीसा प्रान्त में गुड का व्यवसाय और गुड की स्वादिष्ट मिष्ठान बनाने का कार्य करते हैं ।

मोदनसेन जी महाराज

आदि काल में प्रजापति ब्रह्मा के द्वारा विश्व कल्याण के लिए सभी देवी–देवता, ऋषि सम्मिलित महायज्ञ आयोजन किया गया । यज्ञ में मोदनसेन जी पर भोजन व्यवस्था का दायित्व था । भांती भांती के व्यञ्जन और मिष्ठान बनाकर यज्ञजनों को सन्तुष्ट करने के कारण उनको इस कार्य (पाकशास्त्र) के आचार्य घोषित किया गया । बाद में उनके वंशज इसी चक्र द्वारा संसार में फैले । मोदनसेन जी महाराज भलनन्दन जी की चौथी पीढ़ी में तथा उनके पूवर्ज मनु महाराज से सातवीं पीढ़ी में उत्पन्न हुये थे । आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व श्री मोदनसेन जी महाराज की जयन्ती कार्तिक शुक्ल (अक्षय नवमी) को मनाने की परम्परा मिली है ।

 यज्ञसेन जी महाराज

प्रजापति दक्ष के यज्ञ के समय महर्षि भृगु ने ऋचाओं के गायन–आवाहन के साथ, ज्योंही यज्ञकुण्ड की दक्षिणाग्नि में घृताहुति दी, त्योंही यज्ञाग्नि से तप्त स्वर्ण की सी कांति लिऐ एक यज्ञ पुरुष प्रकट हुए । यह यज्ञ पुरुष कस्तुरी मृगों से जुते हुए, दिग्विजयी रथ पर आरूढ़, मणिमुकुटों को धारण किये हुए थे । उन्हें महर्षि मृगु ने ऋभु यज्ञसेन नाम से सम्बोधित किया । यज्ञसेन का विवाह ऋषिपुत्री दक्षिणा से हुआ और उनके ९२ पुत्ररत्न हुए । जो यज्ञ–निर्मित पदार्थों को बनाते व व्यापार करते थे । पुराण के प्रथम अंक के सातवें अध्याय के श्लोक ९३ से २९ तक यज्ञसेन वंश का वर्णन मिलता है । यज्ञसेन महाराज के वंशजो को यज्ञसेनी हलुवाई कहा जाता है । यज्ञसेन जी गुरु पूर्णिमा को अवतरित हुए थे । यज्ञसेन जी का उद्भव कहाँ हुआ था इस विषय में मंगली प्रसाद गुप्त ने लिखा है कि ‘बिठूर, जिला कानपुर (उत्तर प्रदेश) में हुए थे ।’ कुछ लोगों का मत है कि कानपुर से कुछ किलोमिटर दूर गंगा–तट पर जाजमऊ में हुये थे । तिसरा मत यह है कि यज्ञसेन जी महाराज मथुरा में हुये थे । कुछ का मत है कि यज्ञपुर तीर्थ (बिहार–उड़िसा) में हुये थे । इनमें बिठूर (कानपुर) ही ठीक प्रतीत होता है, यहाँ यज्ञ कीलक (कीलों) ब्रह्मशिला है, जहाँ पर यज्ञसेन महाराज ने एक महान यज्ञ किया था ।

गणीनाथ जी महाराज

वैशाली (बिहार ) की धरती मानवता के लिए अपने सर्वश्रेष्ठ योगदानो के लिए जानी जाती है . लोकतंत्र की जननी होने से लेकर वर्द्धमान महावीर की जन्मभूमि तथा गौतम वुद्ध की कर्मभूमि होने का सौभाग्य प्राप्त है . कलांतर में उसी क्रम में संत प्रवर बाबा गणीनाथ जी महाराज की चरण धूलि से पवित्र होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था .संत गणीनाथ  जी का अवतरण भाद्र कृष्ण पक्छ जन्माष्टमी के बाद आगत शनिवार को वैशाली जिला के पलवैया नामक स्थान पर हुआ था .

भगवान शिव के मानस पुत्र अवतारी श्री गणीनाथ  जी महाराज के पालक पिता और माता का नाम क्रमशः श्री मनसा राम साह एवं श्रीमती पनमतिया या पून्यमती था जो जाति के कानू थे  . श्री गनिनाथ जी महाराज की शादी खेमा सती ( छेमा सती ) देवी के संग हुआ था , जिनसे तिन पुत्र -श्री गोविन्द जी महाराज ( बाल ब्रहमचारी) , श्री रायचंद्र राय जी , श्री श्रीधर राय जी थे तथा शीलमती `और सोनमती नामक दो पुत्रिया थी .गृहस्थ जीवन में होने के बावजूद भी श्री गनिनाथ जी का अवतरण लोक कल्याण तथा परम मानवीय मूल्यों की स्थापना हेतु था .उन्होंने अपनी आलौकिक शक्तियों से ना केवल समाज में व्याप्त बुराइयो को संवर्द्धन किया बल्कि साथ -साथ समाज में व्याधिग्रस्त तथा असाध्य रोगों से व्यथित लोगो का काया कल्प किया . स्थानीय राजा धरमपाल की आँखों की ज्योति और उसके एकलौते पुत्र की सर्पदंश से मृत्यु पश्चात भी जीवित होने की चमत्कार से प्रभावित होकर पलवैया  राज उपहार स्वरूप श्री गनिनाथ जी महाराज को देने का चर्चा मिलाता है . बिहार राज्य के विभिन्न भाषाओ के लोक गीतों, लोक कथाओ में बाबा की महिमा  ,  चमत्कार , जीवन लीला , पुत्रो की शौर्य -पराक्रम, उनके विवाह  और लाल खान से युद्ध का चर्चा मगही, भोजपुरी , मैथली , अंगिका  में विस्तृत रूप में है .

बाबा गनिनाथ जी महाराज ने अपने राज्य में कृषि ,गौ – रकछा और वाणिज्य विकाश पर बल दिया . वे तन्त्र मन्त्र , योग विदध्या , वेद तत्वों  के मर्मग्य ज्ञाता , कुशल ज्ञानी और सैन्य संचालन में निपूर्ण थे . वे महान कर्मयोगी , संत- महात्मा, साधक , योगिधिराज़ और क्रन्तिकारी समाज सुधारक थे . धर्म की रक्छा के लिए शस्त्र उठाकर आतातायियो को परास्तकर तत्कालीन समाज को त्राण दिलाया वही सत हृदय का परिचय देते हुए युद्ध में बंदी लाल खान जैसे मुख्य आततायी का हृदय परिवर्तन कर अपना मुख्य सिपाहसलार ( शिष्य ) बना लिया . बाबा गनिनाथ जी ने कानू या मद्धेशिय वैश्य में मूल डीह का सरचना कर वर्ण संकट के दोष से उबरा . इस प्रकार संत शिरोमणि श्री गनिनाथ जी ने भारत के महान संत परंपरा के उच्चतम जीवन मूल्यों को पुनर्जीवित किया . बाबा गनिनाथ जी ने सभी जाति, वर्णो धर्मो के भेदभाव को भुलाकर मानवता के आदर्श का पाठ पढाया और जन कल्याण की सेवा में अपना जीवन को परित्याग किया . आज भी श्री गनिनाथ जी की पूजा कूल देवता के रूप में किया जाता है और उनकी भक्तो की संख्या करोडो से उपर भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशो के अतिरिक्त नेपाल, वर्मा ,बंगला देश आदि देशो में फैले हुये .

समाज के कुछ व्यक्तियों को बाबा गनिनाथ जी को नाथ संप्रदाय से जूडा ने का भ्रम डाला जा रहा है, जो जन भावनाओ, कूल देवता के प्रति आस्था और इतिहास के प्रति अन्याय है . यह सत्य है की नाथ सम्प्रदाय में गहनी नाथ नामक महान संत हुए जो नवो नाथ में से एक नाथ थे, उनके नाम के साथ आंशिक उच्चारण की समानतावश लोग गनिनाथ और गहनिनाथ को भूल या अज्ञानता वश एक मान कर चर्चा कर देते है.  इस सन्दर्भ में लगभग अधिसंख्य समाज के इतिहासकारों , विद्वतजनों ने अपनी- अपनी लेखो, पुस्तकों में बाबा गनिनाथ जी को नाथ संप्रदाय से अलग माना  है . इस संदरभ्य में मेरी समाज के कई बुजुर्गो , भक्तो और इतिहास के ज्ञाताओ से बात हुआ जिसमे  श्री भोला नाथ “ मधुकर “ बाबा गनिनाथ उपन्यास के रचयिता, श्री गंगा प्रसाद आजाद सतमाल पुरी जी, कामेश्वर प्रसाद जी , डा पुष्पा गुप्ता , प्रध्यापक व सहयोगी डा सरोज प्रधान द्वारा रचित अन्वेषण पुस्तिका बाबा  गनिनाथ , स्वय डा सरोज प्रधान जी , पलावैया धाम के मुख्य पंडा जी, बिभिन्न स्मारिकाओ, अपनी वाणी के मुख्य सम्पादक स्व रामावतार गुप्ता द्वारा आलेख , लोक गीतों ( मगही,भोजपुरी, मैथली, ब्रज्जिका , अंगिका ) में बाबा गनिनाथ जी के जीवन गाथाओ, आदि से  बाबा गनिनाथ जी के जीवन चरित्र का सजीव वर्णन मिलता है.

कानू (हलवाई )शब्द की उत्पति

हलवाई भारत में मिष्ठान बनाने वाले को कहते हैं। हलवाई भारत और पकिस्तान में एक जाति हैं जिनका मिठाईयों का पारंपरिक व्यवसाय होता हैं। अरबी शब्द हलवा, जिसका अर्थ मिठाई होता हैं, से हलवाई शब्द की उत्पत्ति मानी जाती हैं। हलवाई शब्द प्रसिद्द भारतीय मिष्ठान हलवा से लिया गया हैं। हलवाई हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्म में पाया जाता हैं। मोदनवाल, कांदु, आदि हलवाई समुदाय द्वारा प्रयोग किया जाने वाला उपनाम हैं।

फिल्म में बॉलीवुड अभिनेता शाहरुख खान और अभिनेत्री दीपिका पादुकोण स्टारिंग फिल्म चेन्नई एक्सप्रेस में शाहरुख खान, राहुल नामक हलवाई के किरदार में थे। जिसमे दीपिका पादुकोण (मीना के किरदार में) “डोंट अंडरएस्टीमेट द पॉवर ऑफ़ हलवाई” डायलॉग बोलते हुई दिखी।

कानू (हलुवाईजाति का विस्तार

आदि पुरुष श्री मोदनसेन महाराजा के वंशावली सम्बद्ध ग्रन्थों के अनुसार वैश्यों की ३५२ उपजातियां तथा १४४४ ग्रन्थों की संख्या बताई गई है । कानू (हलुवाई) जाति आज संसार भर में फेले हैं । परन्तु इस जाति का उद्गमस्थल कहाँ है ? कुलपुरुष मोदन जी ने अपना वंश पृथ्वी के किस खण्ड से विस्तार किया ? महाराज भलनन्दन जी कान्यकुब्ज देशाधिपति थे । जिनकी राजधानी महोदयपुरी थी । जो अब कन्नौज के रूप में जानी जाती है और यह उत्तर प्रदेश के अन्तर्गत पड़ता है । अस्तु मोदनसेन का विस्तार कान्यकुब्ज देश से हुआ । कालान्तर में मोदन वंशीय वैश्यों का कई वर्ग और उपवर्ग बना ।

यज्ञसेन जी का वंशज कान्यकुब्ज से निचे कानपुर क्षेत्र से हुआ और गणीनाथ जी का वंशज उससे निचे पटना आसपास से चारो ओर फैले । वैश्विक आप्रवासन का प्रभाव इन पर भी पड़ा । और हजारौं वर्ष के दौरान ये संसार भर फैले । कानू (हलुवाई) जाति का कान्यकुब्ज देश से लेकर मध्यदेशीय जनपदों तक का प्राचीन बसोवास आज भारत, नेपाल, पाकिस्तान, बंगलादेश में बटा हुआ है । नेपाल के मधेशी हलुवाई साह, साहु, साउ, गुप्ता, दास सरनेम से जाने जाते हैं । हलुवाई जाति भारत के विहार, वंगाल, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मगध, कन्नौज आदि क्षेत्र से ताल्लुक रखता है । उत्तर प्रदेश में मोदनवाल, यज्ञसेनी, हलुवाई, गुप्ता, पंजाव मे कम्बोज, अडोडा, उडिसा में गुडिया, पश्चिम बंगाल मे मायरा, दास टाइटल से जाने जाते हैं । इनका अभी तक ९–१० उप समूह देखा गया है । जैसे मधेशीया, मोदनसेनी, कान्यकुब्ज, यज्ञसेनी, मघिया, जैनपुरी, कानवो, कैथिया, नगारी, रावतपुरिया, बदशाही । इनकी भाषा क्षेत्र के आधार पर हिन्दी, मैथिली, बंगाली, अवधी, भोजपुरी रहा है । नेपाल मे हिमाली जिला को छोडकर महाभारत पहाड़ एवं तराई भूभाग के प्रायः सभी जगह इनकी कहीं सघन तो कहीं अल्प उपस्थिति पाया जाता है । फिर भी पूर्वी तराई के जिलों में तुलनात्मक रूप में अधिक जनसंख्या पाया जाता है । नेपाल में हलुवाई जाति सामाजिक–पिछड़ेपन एवं विभेद का सिकार हैं । सामाजिक चेतना की कमी के कारण यह अपनी मानवीय मूल्य, धार्मिक मान्यता, सांस्कृतिक गौरव, राजकीय अवसर, व्यावसायिक संरक्षण सर्वपक्षीय हक और अधिकार से वञ्चित हैं ।

 

-गोत्रों का महत्व एवं उत्पति 

गोत्र की परिभाषा :- गोत्र जिसका अर्थ वंश भी है । यह एक ऋषि के माध्यम से शुरू होता है और हमें हमारे पूर्वजों की याद दिलाता है और हमें हमारे कर्तव्यों के बारे में बताता है ।

गोत्रों का महत्व :- जाति की तरह गोत्रों का भी अपना महत्‍व है ।
1. गोत्रों से व्‍यक्ति और वंश की पहचान होती है ।
2. गोत्रों से व्‍यक्ति के रिश्‍तों की पहचान होती है ।
3. रिश्‍ता तय करते समय गोत्रों को टालने में सुविधा रहती है ।
4. गोत्रों से निकटता स्‍थापित होती है और भाईचारा बढ़ता है ।
5. गोत्रों के इतिहास से व्‍यक्ति गौरवान्वित महसूस करता है और प्रेरणा लेता है ।

गोत्रों की उत्‍पत्ति- हिन्दू धर्म की सभी जातियों में गोत्र पाए गए है । ये किसी न किसी गाँव, पेड़, जानवर, नदियों, व्यक्ति के नाम, ॠषियों के नाम, फूलों या कुलदेवी के नाम पर बनाए गए है । गोत्रों की उत्‍पत्ति कैसे हुई इस सम्‍बंध में धार्मिक ग्रन्‍थों एवं समाजशास्त्रियों के अध्‍ययन का सहारा लेना पड़ेगा ।

धार्मिक आधार- महाभारत के शान्‍तिपर्व (296-17, 18) में वर्णन है कि मूल चार गोत्र थे- अंग्रिश, कश्‍यप, वशिष्‍ठ तथा भृगु । बाद में आठ हो गए जब जमदन्गि, अत्रि, विश्‍वामित्र तथा अगस्‍त्‍य के नाम जुड़ गए । गोत्रों की प्रमुखता उस काल में बढी जब जाति व्‍यवस्‍था कठोर हो गई और लोगों को यह विश्‍वास हो गया कि सभी ऋषि ब्राह्मण थे । उस काल में ब्राह्मण ही अपनी उत्‍पत्ति उन ऋषियों से होने का दावा कर सकते थे । इस प्रकार किसी ब्राह्मण का अपना कोई परिवार, वंश या गोत्र नहीं होता था । एक क्षत्रिय या वैश्‍य यज्ञ के समय अपने पुरोहित के गोत्र के नाम का उच्‍चारण करता था । अत: सभी स्‍वर्ण जातियों के गोत्रों के नाम पुरोहितों तथा ब्राह्मणों के गोत्रों के नाम से प्रचलित हुए । शूद्रों को छोड़कर अन्‍य सभी जातियों जिनको यज्ञ में भाग लेने का अधिकार था उनके गोत्र भी ब्राह्मणों के ही गोत्र होते थे । गोत्रों की समानता का यही मुख्‍य कारण है । शूद्र जिस ब्राह्मण और क्षत्रिय परिवार का परम्‍परागत अनन्‍तकाल त‍क सेवा करते रहे उन्‍होंने भी उन्‍हीं ब्राह्मणों और क्षत्रियों के गोत्र अपना लिए । इसी कारण विभिन्‍न आर्य और अनार्य जातियों तथा वर्णों के गोत्रों में समानता पाई जाती है । भाटी, पंवार, परिहार, सोलंकी, सिसोदिया तथा चौहान राजपूतों, मालियों, सरगरों तथा मेघवालों आदि कई जातियों में मिलना सामान्‍य बात है । सारांश में पुरोहितों तथा क्षत्रियों के परिवारों की जिन जातियों ने पीढ़ि सेवा की उनके गोत्र भी पुरोहितों और क्षत्रियों के समान हो गए । राजघरानों के रसोई का कार्य करने वाले सूद तथा कपड़े धोने का कार्य करने वाले धोबियों के गोत्र इसी वजह से राजपूतों से मिलते हैं । लम्‍बे समय तक एक साथ रहने से भी जातियों के गोत्रों में समानता आई ।

समाजशास्त्रिय आधार- समाजशास्त्रियों ने सभी जातियों के गोत्रों की उत्‍पत्ति के निम्‍न आधार बताए हैं-
1. परिवार के मूल निवास स्‍थान के नाम से गोत्रों का नामकरण हुआ ।
2. कबीला के मुखिया के नाम से गोत्र बने ।
3. परिवार के इष्‍ट देव या देवी के नाम से गोत्र प्रचलित हुए ।
4. कबिलों के महत्‍वपूर्ण वृक्ष या पशु-पक्षियों के नाम से गोत्र बने ।

समाजशास्त्रियों द्वारा उपरोक्‍त बताए गए गोत्रों की उत्‍पत्ति के आधार बहुत ही महत्‍वपूर्ण है । सभी जातियों के गोत्रों की उत्‍पत्ति उपरोक्‍त आधारों पर ही हुई है ।

बीसवीं शताब्दी के पूर्व कानू समाज

भारत वर्ष के मानवीय भूगोल कर्म प्रधान रहा है । कर्म या व्यवसाय के आधार पर आज भी व्यक्ति व उनका सन्तती सम्बोधित होता है । किसी खास कर्म–व्यवसाय में संलिप्त व्यक्ति, परिवार और विस्तारित पारीवारिक संगठनों ने जातीय–संज्ञा प्राप्त की ।

देश, काल और परिस्थिति की धरातल पर सम्पूर्ण मानवीय समाज को कर्म–व्यवसाय के आधार पर चार वर्ण में वर्गीकृत कर जातीय संरचना का निर्माण हुआ । ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य व शूद्र । ईन चार वर्णों के भितर विभिन्न जाति एवं उपजाति विकसित हुआ । इन्हीं वर्ण एवं जातीय संरचना में वैश्य वर्ण अन्तर्गत हलवाई जाति बना । हलवाई को नेपाल में हलुवाई बोला जाता है । हलवाई का पृष्ठभूमि, चरित्र, जीवन और आजीविका ‘अन्न एवं अन्य फसल उगाना, उन पदार्थाें का पाककला के माध्यम से स्वादिष्ट व्यञ्जन और मिष्टान बनाना तथा देवी–देवता, ऋषि–मुनि, पितृ एवं समस्त समाज की क्षुधा को तृप्त करने’ जैसे सर्वाधिक प्राचीन सामाजिक आयाम और प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है । हमारा बहुत पिछला जीवन कबिलाई संस्कृति से जुड़ा हुआ है । कदाचित उन समूहों मे भोजन–प्रभारी (या समूह) भी जाति विशेष के रूप में सम्बोधित होते थे । हमें हमारी आदिम इतिहास, संस्कृति और पहचान पर गर्व है । हम अपनी विशिष्टताओं का स्मरण कर रोमाञ्चित होते हैं । और, यदाकदा टूटी–फूटी जातीय इतिहास और अशिक्षा–गरिबी से ग्रस्त अपने कुटुम्बों की बद्हाली देखकर दुःखी भी होते हैं ।

सम्भवतः इतिहासकारों ने जितनी सजगता एवं तत्परता राजवंशो के इतिहास लेखन में दिखाई है, उतनी जातीय इतिहास लेखन में नहीं । यही कारण है कि जातीय एवं उपजातीय इतिहास विशुद्ध रूप से सामने नहीं आ पाया है । यह खुशी की बात है कि सदियों से शोषित, पीडित, उपेक्षित आम जातियों में २० वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जातीय जागरण का श्री गणेश हुआ और वर्तमान दौर में यह एक उचाइ पर है । सांस्कृतिक जिज्ञासा, पहचान और समान जातीय महता की खोज तीव्र रूप में बढ़ गया है । हलवाई जाति भी इससे अछुता नहीं है ।

भारतीय वाङमय के अनुसार मोदनसेन जी महाराज, यज्ञसेन जी महाराज, गणीनाथ जी महाराज तथा महान संत पलटु दास एवं महाकवि जय शंकर प्रसाद जैसे वैश्य–हलुवाई जाति की महानतम विभुति इस समाज के नहीं बल्कि विश्व के गौरव हैं ।

हलुवाई जाति का प्रादुर्भाव और इतिहास की बातें वेदकाल से लेकर वर्तमान काल खण्डों तक विभिनन समय में सिर्जित यजुर्वेद (अध्याय–३२ सुक्ति–१२), अथर्ववेद गरुड़ पुराण (अध्याय ४४ क–१८), वराहपुराण, मनुस्मृति, गर्ग संहिता (खण्ड–७ अध्याय–८), वर्णविवेक चन्द्रिका, वर्ण विवेकसार जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों में उल्लेख है । आधुनिक काल में विभिन्न विद्वानों द्वारा हलुवाई जाति पर शोध कर विभिन्न ग्रन्थ, शोधपुस्तक, इन्टरनेट प्रकाशित किया गया है । शताब्दी पूर्व स्थापित अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा से लेकर उसके बाद विभिन्न काल में विभिन्न स्थान पर स्थापित संघ–संगठनों ने जाति एकीकरण का प्रयास किया है, जातीय इतिहास और संस्कृति का अध्ययन कर प्रसारित किया है और आधुनिक राज्य व्यवस्था में जातीय हिस्सा प्राप्त करने में क्रियाशील हैं ।

‘वर्णविवेक चन्द्रिका’ में सृष्टि का उत्पत्ति क्रम दिखाते हुए वैश्यों की उत्पत्ति और बाद में हलुवाई वैश्यों की उत्पत्ति का वर्णन निम्न लिखित अनुसार है —

देव देव महादेव लोकानां हितकाकार ।

वर्णानामाश्रमाणां च संकाराणां तथैवच ।।

उत्पत्तिं श्रोतु मिच्छासि विस्तरेण कृपानिधे ।

कृया तृत्या महादेव, फलौ तिष्ठेच मानावः ।।

अर्थात— ‘श्री पार्वती जी ने देवों के देव श्री महादेव जी से पूछा कि हे कृपानिधे ! मनुष्यों के वर्ण, आश्रम, उत्पत्ति तथा संकरों के भेद क्या है ? कृपया लोकों के हित के लिए विस्तार पूर्वक कहिये ।’ इस पर श्री महादेव जी ने कहा—

श्रृणु देवी प्रवक्ष्यामि जातीनांच विनिर्णयम् ।

अव्यक्ताच समुत्पन्ना ब्रह्मविष्णु महेश्वराः ।।

ब्राह्मण निर्मिता वर्णामुख बाहुरूपादतः ।

ब्राह्मणः क्षत्रियों वैश्यः शूद्रश्रैव यथा क्रमम ।।

अर्थात— ‘हे देवी ! सुनो ! जातियों का विवरण इस तरह है कि, पहले अव्यक्त यज्ञ से ब्रह्मा, विष्णु , महेश्वर उद्धत हुए । फिर प्रजापति (ब्रह्मा) ने मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रीय, उरू से वैश्य और पाद से शूद्र वर्ण रचे ।’ फिर

मरीचिरत्र्यंगिरसौ पुलस्यः पुलहः क्रतुः ।

भृगुर्वशिष्ठ श्रयवो नारदो दक्ष एच च ।।

तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च ब्राह्मणेषु प्रतिष्ठिताः ।

वेदाध्ययन सम्पन्ना स्त्रिषु वर्णाषु पूजिताः ।।

अर्थात— मरीचि, अंगिरा, पुलस्य, पुलह, क्रत, भृगु, वशिष्ठ, श्रयव, नारद और दक्ष के पुत्र प्रभृति से ब्राह्मणों का वंश चला । और ये, वेदादि से सम्पन्न तीनों वर्णो से पूजित और गोत्रकार ऋषि हुए । और —

ब्राह्मणो बाहु देशाश्च मनुः स्वायंम्भुवोऽभवत् ।

वाम वाहोः समुत्पन्नां शतरूपा पतिव्रताः ।।

तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च क्षत्रवंशे प्रतिष्ठिताः ।

चतुर्दशमनूनां च वंशास्ते क्षत्र जातयः ।।

अर्थात— प्रजापति के दाहिने बाहु देश से स्वायम्भुवमनु तथा बाहु से उनकी स्त्री शतरूपा नास्त्री उत्पनन हुई । इनके पुत्र पौत्र प्रभृति क्षत्रीय वंश के प्रतिष्ठित हुए ।

इसके बाद —

अरूदेशात्समुतपन्नों ब्राह्मणः प्राणवल्लभे ।

भलनदनेति विख्यातस्तस्य पत्नी मरूत्वति ।।

वत्समीति सुतस्तस्य प्रांशुस्तस्याऽभवनसुतः ।

प्राशोः पुत्राः षडासन्वै तेषां नामानिमे श्रृणु ।।

मोदः प्रमोदो बालश्च मोदनश्च प्रमर्दनः ।

शंकुकर्णेति विख्यातस्तेषां कर्म पृथक् पृथक ।।

अर्थात— प्रजापति के उरू देश से वैश्यों के मूलपुरुष भलनन्दन और उनकी स्त्री मरूत्वती नाम से पैदा हुई । इनके पुत्र वत्सप्रीति, वतसप्रीति से प्रांशु हुए । प्रांशु के छः पुत्र हुए जिनका नाम क्रमशः मोद, प्रमोद, बाल, मोदन, प्रमर्दन, शंकु और कर्ण हुआ । इनके कर्म भी पृथक पृथक हुए ।

मोदनस्य च वंशाये मोदकानां प्रकारकाः ।

वश्य वृत्ति समाश्रित्य संजाताः पृथिवीतले ।।

अर्थात— मोदन के वंश में, मोदक (लड्डू) आदि का व्यवसाय करने वाले— वैश्य उत्पन्न हुए । जो कि इस वैश्य वृत्ति के द्वारा संसार में फैले । वर्णविवेक चन्द्रिका के अनुसार भलनन्दन और मरूत्वती नाम से उत्पन्न मोदन से हलुवाई जाति की विकास हुई ।

जिस तरह माली द्वारा तोडा गया फूल, डोम द्वारा बनाया गया बा“स का वर्तन, कुम्हार द्वारा बनाया गया मिट्टी का वर्तन धर्म कार्य हेतु शुद्ध माना गया हैं, उसी तरह सिर्फ हलुवाई द्वारा बनायी गई नेवैद्य ही देवी देवता को अर्पण करने के लिए शुद्ध माना गया हैं ।

मोदनसेन, मोदक और मोदनवाल

मोदनसेन महाराजा के बाद व्यञ्जन÷मिष्ठानादि के लिए जातीय कर्म में निरूपित हुए । उनका मूल नाम ‘मोदन’ से मोदक शब्द बना जिसका तात्पर्य सर्वोत्कृष्ठ मिष्ठान्न होता है । संस्कृति में ‘मोदक’ शब्द का अर्थ इस प्रकार दर्शाया गया है— मुद वर्ष ददति मोदक  यानि जो सबको आनन्दित करें । मोद से ही मधु अर्थात मिठा होता है । उसी तरह मोदन का अर्थ बताया गया है— जिसमें सबको आनन्दित करने की क्षमता निहित हो । इस तरह संस्कृत के भावार्थ में ‘मोदन’ एक व्यक्तित्व के रूप में और ‘मोदक’ एक वस्तु के रूप में प्रतीत होता है ।

मोदक को बोलचाल में लड्डु कहते हैं । एभयउभि न्चयगउक क्ष्लमष्बके वेवसाइट के अनुसार मिष्ठान बनाने बाले हलुवाई प्रथम पुजीत भगवान् श्री गणेश जी का प्रिय भोजन मोदक (लड्डु) बनाने वाले के नाम से जाने जाते हैं । इसिलिए मोदक बनाने वाले मोदनवाल के रूप में परिचित हैं । आटा, चिनी, घी, बदाम, पिस्ता और केशर के मिश्रण से बनने वाला स्वादिष्ट मिष्टान्न ‘हलवा’ बनाने वाले को हलवाई कहा गया है ।

किन्तु अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा (भदोही, संतकवीरनगर, उत्तरप्रदेश) इस बात से सहमत नहीं है । महासभा की शताब्दी प्रवाह स्मारिका के अनुसार एक मात्र ‘हलवा’ से ‘हलवाई’ समझना उचित नहीं है । क्यों कि हलवा शब्द यहाँ का नहीं है— अरब आदि यवन देशों का है । यहाँ इस तरह के मिष्ठान को ‘मोहनभोग’ कहा जाता है । हलुवाई शब्द हलवा बनाने को लेकर नहीं, बल्कि ‘हलवाही’ शब्द अपभ्रंश होकर हलवाई हुआ जिसका तात्पर्य हल जोतना होता है । हलवाही कर अन्न उगाना और उसका मोदक आदि मिष्ठान सहित विभिन्न व्यञ्जन बनाने के कारण ये हलवाई तथा मोदनवाल आदि शब्दों से परिचित हुए । ‘वाल’ शब्द समूह वाचक है । संस्कृत में इसका अर्थ है— वृक्ष । ये चारो ओर से मिट्टी के घेरे से मेढ़ बन्दी कर दी जाती है । उसे वाल कहा गया है । अतः मोदनवाल सगुणों से परिपूर्ण प्रतीत होता है । हलुवाई जाति विशेष को मोदनवाल टाइटिल से पुकारा जाता था । आज हलुवाई जाति विभिन्न टाइटिल प्रयोग करने लगे है.। मोदनवाल हलुवाई का इतिहास मोदनसेन महाराजा के साथ शुरू होता है । मोदक बनाने वाले मोदनसेन कहलाए । की खोज तीव्र रूप में बढ़ गया है । हलवाई जाति भी इससे अछुता नहीं है ।

भारतीय वाङमय के अनुसार मोदनसेन जी महाराज, यज्ञसेन जी महाराज, गणीनाथ जी महाराज तथा महान संत पलटु दास एवं महाकवि जय शंकर प्रसाद जैसे वैश्य–हलुवाई जाति की महानतम विभुति इस समाज के नहीं बल्कि विश्व के गौरव हैं ।

हलुवाई जाति का प्रादुर्भाव और इतिहास की बातें वेदकाल से लेकर वर्तमान काल खण्डों तक विभिनन समय में सिर्जित यजुर्वेद (अध्याय–३२ सुक्ति–१२), अथर्ववेद गरुड़ पुराण (अध्याय ४४ क–१८), वराहपुराण, मनुस्मृति, गर्ग संहिता (खण्ड–७ अध्याय–८), वर्णविवेक चन्द्रिका, वर्ण विवेकसार जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों में उल्लेख है । आधुनिक काल में विभिन्न विद्वानों द्वारा हलुवाई जाति पर शोध कर विभिन्न ग्रन्थ, शोधपुस्तक, इन्टरनेट प्रकाशित किया गया है । शताब्दी पूर्व स्थापित अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा से लेकर उसके बाद विभिन्न काल में विभिन्न स्थान पर स्थापित संघ–संगठनों ने जाति एकीकरण का प्रयास किया है, जातीय इतिहास और संस्कृति का अध्ययन कर प्रसारित किया है और आधुनिक राज्य व्यवस्था में जातीय हिस्सा प्राप्त करने में क्रियाशील हैं ।

‘वर्णविवेक चन्द्रिका’ में सृष्टि का उत्पत्ति क्रम दिखाते हुए वैश्यों की उत्पत्ति और बाद में हलुवाई वैश्यों की उत्पत्ति का वर्णन निम्न लिखित अनुसार है —

देव देव महादेव लोकानां हितकाकार ।
वर्णानामाश्रमाणां च संकाराणां तथैवच ।।
उत्पत्तिं श्रोतु मिच्छासि विस्तरेण कृपानिधे ।
कृया तृत्या महादेव, फलौ तिष्ठेच मानावः ।।

अर्थात— ‘श्री पार्वती जी ने देवों के देव श्री महादेव जी से पूछा कि हे कृपानिधे ! मनुष्यों के वर्ण, आश्रम, उत्पत्ति तथा संकरों के भेद क्या है ? कृपया लोकों के हित के लिए विस्तार पूर्वक कहिये ।’ इस पर श्री महादेव जी ने कहा—

श्रृणु देवी प्रवक्ष्यामि जातीनांच विनिर्णयम् ।
अव्यक्ताच समुत्पन्ना ब्रह्मविष्णु महेश्वराः ।।
ब्राह्मण निर्मिता वर्णामुख बाहुरूपादतः ।
ब्राह्मणः क्षत्रियों वैश्यः शूद्रश्रैव यथा क्रमम ।।

अर्थात— ‘हे देवी ! सुनो ! जातियों का विवरण इस तरह है कि, पहले अव्यक्त यज्ञ से ब्रह्मा, विष्णु , महेश्वर उद्धत हुए । फिर प्रजापति (ब्रह्मा) ने मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रीय, उरू से वैश्य और पाद से शूद्र वर्ण रचे ।’ फिर

मरीचिरत्र्यंगिरसौ पुलस्यः पुलहः क्रतुः ।
भृगुर्वशिष्ठ श्रयवो नारदो दक्ष एच च ।।
तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च ब्राह्मणेषु प्रतिष्ठिताः ।
वेदाध्ययन सम्पन्ना स्त्रिषु वर्णाषु पूजिताः ।।

अर्थात— मरीचि, अंगिरा, पुलस्य, पुलह, क्रत, भृगु, वशिष्ठ, श्रयव, नारद और दक्ष के पुत्र प्रभृति से ब्राह्मणों का वंश चला । और ये, वेदादि से सम्पन्न तीनों वर्णो से पूजित और गोत्रकार ऋषि हुए । और —

ब्राह्मणो बाहु देशाश्च मनुः स्वायंम्भुवोऽभवत् ।
वाम वाहोः समुत्पन्नां शतरूपा पतिव्रताः ।।
तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च क्षत्रवंशे प्रतिष्ठिताः ।
चतुर्दशमनूनां च वंशास्ते क्षत्र जातयः ।।

अर्थात— प्रजापति के दाहिने बाहु देश से स्वायम्भुवमनु तथा बाहु से उनकी स्त्री शतरूपा नास्त्री उत्पनन हुई । इनके पुत्र पौत्र प्रभृति क्षत्रीय वंश के प्रतिष्ठित हुए ।

इसके बाद —

अरूदेशात्समुतपन्नों ब्राह्मणः प्राणवल्लभे ।
भलनदनेति विख्यातस्तस्य पत्नी मरूत्वति ।।
वत्समीति सुतस्तस्य प्रांशुस्तस्याऽभवनसुतः ।
प्राशोः पुत्राः षडासन्वै तेषां नामानिमे श्रृणु ।।
मोदः प्रमोदो बालश्च मोदनश्च प्रमर्दनः ।
शंकुकर्णेति विख्यातस्तेषां कर्म पृथक् पृथक ।।

अर्थात— प्रजापति के उरू देश से वैश्यों के मूलपुरुष भलनन्दन और उनकी स्त्री मरूत्वती नाम से पैदा हुई । इनके पुत्र वत्सप्रीति, वतसप्रीति से प्रांशु हुए । प्रांशु के छः पुत्र हुए जिनका नाम क्रमशः मोद, प्रमोद, बाल, मोदन, प्रमर्दन, शंकु और कर्ण हुआ । इनके कर्म भी पृथक पृथक हुए ।

मोदनस्य च वंशाये मोदकानां प्रकारकाः ।
वैश्य वृत्ति समाश्रित्य संजाताः पृथिवीतले ।।

अर्थात— मोदन के वंश में, मोदक (लड्डू) आदि का व्यवसाय करने वाले— वैश्य उत्पन्न हुए । जो कि इस वैश्य वृत्ति के द्वारा संसार में फैले । वर्णविवेक चन्द्रिका के अनुसार भलनन्दन और मरूत्वती नाम से उत्पन्न मोदन से हलुवाई जाति की विकास हुई ।

जिस तरह माली द्वारा तोडा गया फूल, डोम द्वारा बनाया गया बा“स का वर्तन, कुम्हार द्वारा बनाया गया मिट्टी का वर्तन धर्म कार्य हेतु शुद्ध माना गया हैं, उसी तरह सिर्फ हलुवाई द्वारा बनायी गई नेवैद्य ही देवी देवता को अर्पण करने के लिए शुद्ध माना गया हैं ।

मोदनसेन, मोदक और मोदनवाल

मोदनसेन महाराजा के बाद व्यञ्जन÷मिष्ठानादि के लिए जातीय कर्म में निरूपित हुए । उनका मूल नाम ‘मोदन’ से मोदक शब्द बना जिसका तात्पर्य सर्वोत्कृष्ठ मिष्ठान्न होता है । संस्कृति में ‘मोदक’ शब्द का अर्थ इस प्रकार दर्शाया गया है— मुद वर्ष ददति मोदक यानि जो सबको आनन्दित करें । मोद से ही मधु अर्थात मिठा होता है । उसी तरह मोदन का अर्थ बताया गया है— जिसमें सबको आनन्दित करने की क्षमता निहित हो । इस तरह संस्कृत के भावार्थ में ‘मोदन’ एक व्यक्तित्व के रूप में और ‘मोदक’ एक वस्तु के रूप में प्रतीत होता है ।

मोदक को बोलचाल में लड्डु कहते हैं । एभयउभि न्चयगउक क्ष्लमष्बके वेवसाइट के अनुसार मिष्ठान बनाने बाले हलुवाई प्रथम पुजीत भगवान् श्री गणेश जी का प्रिय भोजन मोदक (लड्डु) बनाने वाले के नाम से जाने जाते हैं । इसिलिए मोदक बनाने वाले मोदनवाल के रूप में परिचित हैं । आटा, चिनी, घी, बदाम, पिस्ता और केशर के मिश्रण से बनने वाला स्वादिष्ट मिष्टान्न ‘हलवा’ बनाने वाले को हलवाई कहा गया है ।

किन्तु अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा (भदोही, संतकवीरनगर, उत्तरप्रदेश) इस बात से सहमत नहीं है । महासभा की शताब्दी प्रवाह स्मारिका के अनुसार एक मात्र ‘हलवा’ से ‘हलवाई’ समझना उचित नहीं है । क्यों कि हलवा शब्द यहाँ का नहीं है— अरब आदि यवन देशों का है । यहाँ इस तरह के मिष्ठान को ‘मोहनभोग’ कहा जाता है । हलुवाई शब्द हलवा बनाने को लेकर नहीं, बल्कि ‘हलवाही’ शब्द अपभ्रंश होकर हलवाई हुआ जिसका तात्पर्य हल जोतना होता है । हलवाही कर अन्न उगाना और उसका मोदक आदि मिष्ठान सहित विभिन्न व्यञ्जन बनाने के कारण ये हलवाई तथा मोदनवाल आदि शब्दों से परिचित हुए । ‘वाल’ शब्द समूह वाचक है । संस्कृत में इसका अर्थ है— वृक्ष । ये चारो ओर से मिट्टी के घेरे से मेढ़ बन्दी कर दी जाती है । उसे वाल कहा गया है । अतः मोदनवाल सगुणों से परिपूर्ण प्रतीत होता है । हलुवाई जाति विशेष को मोदनवाल टाइटिल से पुकारा जाता था । आज हलुवाई जाति विभिन्न टाइटिल प्रयोग करने लगे है.। मोदनवाल हलुवाई का इतिहास मोदनसेन महाराजा के साथ शुरू होता है । मोदक बनाने वाले मोदनसेन कहलाए ।

रविवार, 12 सितंबर 2021

जय संत शिरोमणि बाबा गणिनाथ महाराज जी का संदेश :-

मद्धेशिया समाज के कुलगुरु श्री श्री 1008 संत शिरोमणि बाबा गणिनाथ जी महाराज भगवान शिव के अवतार थे। जिनका अवतार इस भूलोक में धर्म की रक्षा, मानवता का संदेश देने व मानवों के बीच बढ़ रही वैमनस्यता को दूर करने के लिए हुआ था। भगवान शिव के परम भक्त श्री मंशाराम ग्राम महनार वैशाली में गंगा किनारे अपनी एक कुटिया में सपत्नी रहते थे। मंशाराम जी सात्विक व धार्मिक विचारों को मानने वाले थे। गृहस्थ जीवन के साथ भगवान भोले शंकर के सबसे बड़े उपासक थे। संतानहीन होने के बावजूद उनका भगवान पर पूरा विश्वास था और वे अपने जीवन से खुश थे। इसी विश्वास व मंशाराम की भक्ति से प्रसन्न होकर भोले बाबा ने एक रात दर्शन दिया और अगले ही दिन वन में एक पीपल के पेड़ के नीचे एक अलौकिक बच्चा मिला। इसके अछ्वुत कारनामों ने मंशाराम की ¨जदगी ही बदल दी। बाद में यही बालक राजयोग व महर्षि योग के धनी होने के कारण आगे चलकर गणिनाथ हुए। चंदेल राजाओं में महाराजा धंग की पुत्री क्षेमा से विवाह के बाद गणिनाथ ने अपने पराक्रम से उनके राजपाट को और बढ़ा दिया। बाद में महाराजा धंग ने गणिनाथ का राज्याभिषेक कर दिया। इस बीच महमूद गजनी की क्रूरता की चर्चा सुनते ही गणिनाथ ने अपने प्रतापी पुत्र विद्याधर संग गजनी को देश से खदेड़ दिया। इस बीच पलवैया में यवनों के अत्याचार की सूचना मिली। इससे निपटने के लिए भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध में हार के बाद यवनों की सेना भी बाबा गणिनाथ जी महाराज के तपबल व योगशक्ति से इतना प्रभावित हुए कि शरणागत हो गए। इसके बाद अपने बेटे विद्याधर को राजपाट की जिम्मेवारी सौंप गणिनाथ सन्यासी वेश में खजुराहो की तरफ चले गए। वे खजुराहो से चित्रकुट, प्रयाग, अयोध्या व गो¨वदधाम तक की यात्रा पूरी की व देश के कई हिस्सों में जाकर लोगों को योग, साधना, मानवसेवा व शिक्षा के प्रति जागरूक किए।

बाबा गणिनाथ के संदेश

-वेदों का अध्ययन करें

-सच्चाई व धर्म का पालन करें

-काम, क्रोध, लोभ, अभिमान व आलस्य का त्याग करें

-नारी का सम्मान व रक्षा करें



शनिवार, 4 सितंबर 2021

कहां कहां है हमारे कुल देवता श्री गणिनाथ महाराज जी की मंदिर :-

मद्धेशिय समाज/जन जन के कूल देवता के मंदिर/तीर्थस्थल 

१ .पलवैया धाम, हसनपुर गुर्दा, दिनांक 23 अगस्त २०१९ को नव निर्मित बाबा गणिनाथ जी का मंदिर का उद्घाटन एवं 14 पिण्ड का स्थापन साथ में बाबा गोविंद जी, बाबा गणिनाथ जी एवं माता खेमासती का मूर्ति अनावारण हुआ। नव निर्मित सुन्दर भवन ABMVS के द्वारा भारत नेपाल के भक्तजनों के सहयोग से अध्यक्ष प्रेमचंद साव, सिल्लीगुड़ी, महामंत्री बसंत गुप्ता, गोरखपुर और कोषाध्यक्ष अनील गुप्ता, गया संग सभी भक्तजनों का मंदिर निर्माण में पूर्ण रूप से सहयोग रहा।

२. पलवैया धाम, हसनपुर गुर्दा, पलवैया गंगा तट पर स्थित बाबा गणिनाथ गोविन्दजी महाराज का मन्दिर है जिसका संचालन स्थानीय पंडा जी लोगो एवम राजपूत भक्तो के निगरानी में होता है । प्राचीन पलवैया धाम मंदिर का मूल चौकट एवम पल्ला ऐतिहासिक रूप में संरक्षित है।

३. कोनाहरा घाट, हाजीपुर में कलकल बहती जीवनदायनी गंगा जी के तट पर स्थित है , जिसके दुसरे तट पर हरिहर नाथ महादेव मंदिर दिखाई देता है।

४. घाघा घाट, पटना जो पटना युनिवर्सिटी के पास गंगा के तट पर बाबा गणिनाथ गोविन्दजी का सुन्दर प्राकृतिक सौंदर्य के साथ प्राचीन मन्दिर स्थित है। शाम सुबह के गंगा के मनोहर दृश्यों के साथ सुकून का समय व्यतीत कर सकते है।

५. पलवैया धाम के मुख्य मन्दिर के गंगा में समाधिस्त होने के पश्चात मुजफ्फरपुर के राय बहादुर टुनकी साव द्वारा बिदुपुर में काफ़ी बडा भूभाग गंगा के दुसरे तट पर लेकर मंदिर निर्माण कर बाबा गणिनाथ गोविन्दजी महाराज के साथ चौदहो देवान का पिंड स्थापित है। यह बृहत भूभाग एवम मन्दिर का संचालन ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।

६. दानापुर , पटना में गणिनाथ गोविन्दजी की सुन्दर नव निर्मित मन्दिर है यहां स्थानीय लोगों के द्वारा गणिनाथ जयंती समारोह आयोजित होता है ।

७. पटना शहर में ही कुर्जी इलाके मे गंगा के तट पर गणिनाथ गोविन्दजी की मन्दिर बना हुआ है यहा भादो कृष्णपक्ष अष्टमी के पश्चात आगत शनिवार को श्री गणिनाथ जी जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया जाता हैं।

८. पटना शहर के मध्य और प्रसिद्ध मुहल्ला राजेंद्र नगर स्थित तीन मंजिल का निर्मित विशुद्धानंद आश्रम के भूतल पर गणिनाथ गोविन्दजी स्थित है वही ऊपरी तल धर्मशाला एवम हॉल के रूप मे व्यवहार किया जाता हैं। इसमें कमरों की भी व्यवस्था है।

९. पोखरैरा , मुजफ्फरपुर में भव्य सुन्दर बाबा गणिनाथ जी गोविन्द जी एवम चौदहों देवान के पिंड स्थापित है। इस मन्दिर में गणिनाथ जी जन्मोत्सव पर भारी भीड़ जमा होता है।

१०. बीबीगंज, माड़ीपुर चौक पर बृहत भूभाग पर गणिनाथ गोविन्दजी जी जयंती समारोह आयोजित होता है । यह स्थानीय स्वजातीय द्वारा दान की प्राचीन भूमि है परंतु आपसी प्रॉपर्टी विवाद के कारण उतना डेवलप नही कर पाया है। अभी भी कई लोग प्रयासरत हैं यहां विविध शिक्षण संस्थान, छात्रावास , धर्मशाला खोला जा सकता है।

१. समस्तीपुर में बहुत ही सुन्दर बाबा के परिवार के जीवंत मूर्तियां स्थपित है । मन्दिर की देखरेख , सफाई काफ़ी सुन्दर है । गणिनाथ जयंती पर शानदार भीड़ इकठ्ठी होती हैं। 

१२. सीतामढ़ी में भारी जनसंख्या होने के बाद भी मन्दिर की भव्यता और विधि व्यवस्था सुदृढ़ नही है। मुझे गए कई वर्ष हों गया परन्तु सुना है नई कमेटी सक्रीय है। 

१३. मोतिहारी,पूर्वी चंपारण मे जातीय संख्या की कमी के बावजूद मन्दिर भूभाग लेकर बाबा को स्थान देना स्थानीय भक्तजनों की हिम्मत और हौसला को धनयवाद है। प्रतिवर्ष पुजा और मेला का आयोजन होता है।

१४. बारा चकिया, पूर्वी चंपारण में गत वर्ष ग्राम कुआवा के कुलगुरु भक्त श्रीं ओमप्रकाश जी द्वारा बृहत, भव्य मंदिर का निर्माण कर बाबा गणिनाथ जी के परिवार को स्थापित किया गया है।

१५. दरभंगा के गणिनाथ गोविन्दजी पूजक भक्तो ने २०१९ में भव्य मनभावन मन्दिर , हॉल का निमार्ण कर अपनी श्रद्धा और भक्ति का मिशाल कायम किया है।

१६. पुनर्नवा गणिनाथ मंदिर देवलास , मऊ, यू पी
मऊ जनपद मुख्यालय से लगभग ३५ कि मी दूर , घोसी मुहम्मदाबाद रोड पर देवलास में १९६२ में स्थापित संत गणिनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार तीव्र गति से जारी है

१७. दिल्ली में बुद्ध बिहार फेज २, रोहिणी में बाबा गणिनाथ गोविन्दजी जी चेरिटेबल ट्रस्ट द्वारा रजिस्टर्ड छोटा भूखंड पर नयनाभिराम बाबा गणिनाथ जी गोविन्द जी, माता खेमासती की प्रतिमा स्थापित किया गया है। 

१७.सती स्थान गालिमपुर , लोहची-बरियारपुर , जिला - मुंगेर ( बिहार) मद्धेशिय समाज के लिए एक तीर्थस्थल है जहाँ प्रतिवर्ष मद्धेशिय समाज हजारो -हजार की संख्या में एकत्रित होती है । इसे पूर्वी बिहार का पलवैया धाम कहा जाता है । प्रतिवर्ष होली के बाद द्वितीय_शनिवार_रविवार को दो दिवसीय पूजन नियत है । यहाँ सुंदरी पूजन , मुंडन संस्कार आदि शुभ मांगलिक कार्य सम्पन्न करते है । यहाँ सती मन्दिर , गणिनाथ -गोविन्द जी और भगवान शिव का मन्दिर बना हुआ है ।

१८. सहस्त्र धारा, गया में कुलगुरू गणिनाथ जी सुन्दर मन्दिर पहाड़ी पर स्थित है जहां प्रतिवर्ष श्रद्धालु जनों की भीड़ पहुंचती हैं।

१९. औरंगाबाद बाईपास पर बभनंडी में प्राचीन बाबा गणिनाथ जी की प्रतिमा मन्दिर में स्थापित है । जगह बहुत ही रामाणिक और अध्यात्म से जुडा है जहां आपकी आस्था और भक्ति स्वत संचारित होने लगता है।

 संख्या अधिक होने के कारण शहर/कस्बा का नाम, संख्या संकलित कर रहा हूं - (बिहार)
२०. बांध बनकेरवा , २१.परसा बाजार, २२.गरखा, २३. भागलपुर २४.मद्धेशिय मार्केट सिवान, २५. गोपालगंज,२६.भादस खगड़िया, २७.ढोढी नाथ मन्दिर, बेगूसराय, २८.माणिक पुर , मधेपुरा, २९. मोतीबाग, किशनगंज, ३०.सासाराम, ३१. मारन पुर, गया, खरिक बाजार, बलहा डीह, गढ़िया, कहारा ज़िला सहरसा, बड़का मन्दिर परिसर, लालगंज, सकरी, दरभंगा, गोविन्द नगर, दरभंगा, भरवारा, दरभंगा, बक्सर, महुआ, वैशाली, जगदीश पुर, भोजपुर
झारखण्ड -
३२. जमशेदपुर ३३. धनबाद ३४. ३५.रामगढ़ , ३६. सुरही बोकारो, ३७.रांची सिद्धपुर, ३८.चाईबासा, ३९.बरियातू रांची, ४०. बिजुरिया रांची, ४१.चांदवा, ४२. लातेहार, ४३. गढ़वा, ४४.सरैही डीह, पलामू, ४५.हजारीबाग, ४६.टमरी बरही, हजारीबाग,
उत्तर प्रदेश -
४७.वाराणसी, ४८.भृगुआश्रम, बलिया, ४९ कदमतार चौराहा, बलिया, ५०.उन्माद रोड, भादस ,५१. खापुरा रोड़ कानपुर, ५३.रसड़ा, 
नेपाल -
५४.बीरगंज, ५५.जलेसर, ५६.जनकपुर,५७. दुहई बाजार, ५८.रौतहाट, ५९.राजबिराज, ६०.सामहौती, ६१.पिपराही, 
पश्चिम बंगाल -
६२.राधा नगर, ६३.आसनसोल, 
६३. भिलाई छत्तीसगढ़, दोस्तपुर, दातूआर, महुआ, बल्लूपुर, कालीजरी से भी सूचनाएं प्राप्त हुआ है।
....... (क्रमशः)

नोट - कई लोगो के सहयोग से सूचि संकलीत किया गया है, भूलचूक होना लाजमी , अतः जहा गलत या स्थान छूट गया है तो सूचित करे।