रविवार, 7 नवंबर 2021

💐💐💐 पल्टू बनिये प्रभु की कृपा 💐💐💐

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                पलटू बनिये पर कृपा

          श्री अयोध्या जी में 'कनक भवन' एवं 'हनुमानगढ़ी' के बीच में एक आश्रम है जिसे 'बड़ी जगह' अथवा 'दशरथ महल' के नाम से जाना जाता है। काफी पहले वहाँ एक सन्त रहा करते थे जिनका नाम था श्री रामप्रसाद जी। उस समय अयोध्या जी में इतनी भीड़ भाड़ नहीं होती थी। ज्यादा लोग नहीं आते थे। श्री रामप्रसाद जी ही उस समय बड़ी जगह के कर्ता धर्ता थे। 
          वहाँ बड़ी जगह में मन्दिर है जिसमें पत्नियों सहित चारों भाई (श्री राम, श्री लक्ष्मण, श्री भरत एवं श्री शत्रुघ्न जी) एवं हनुमान जी की सेवा होती है। चूंकि सब के सब फक्कड़ सन्त थे .... तो नित्य मन्दिर में जो भी थोड़ा बहुत चढ़ावा आता था उसी से मन्दिर एवं आश्रम का खर्च चला करता था।
           प्रतिदिन मन्दिर में आने वाला सारा चढ़ावा एक बनिए को (जिसका नाम था पलटू बनिया) भिजवाया जाता था। उसी धन से थोड़ा बहुत जो भी राशन आता था.... उसी का भोग-प्रसाद बनकर भगवान को भोग लगता था और जो भी सन्त आश्रम में रहते थे वे खाते थे।
          एक बार प्रभु की ऐसी लीला हुई कि मन्दिर में कुछ चढ़ावा आया ही नहीं। अब इन साधुओं के पास कुछ जोड़ा गांठा तो था नहीं... तो क्या किया जाए ..? कोई उपाय ना देखकर श्री रामप्रसाद जी ने दो साधुओं को पलटू बनिया के पास भेज के कहलवाया कि भइया आज तो कुछ चढ़ावा आया नहीं है... अतः थोड़ा सा राशन उधार दे दो... कम से कम भगवान को भोग तो लग ही जाए। पलटू बनिया ने जब यह सुना तो उसने यह कहकर मना कर दिया कि मेरा और महन्त जी का लेना देना तो नकद का है... मैं उधार में कुछ नहीं दे पाऊँगा। ('श्रीजी की चरण सेवा' की ऐसी ही आध्यात्मिक, रोचक एवं ज्ञानवर्धक पोस्टों के लिये हमारे फेसबुक पेज के साथ जुड़े रहें)
           श्री रामप्रसाद जी को जब यह पता चला तो "जैसी भगवान की इच्छा" कहकर उन्होंने भगवान को उस दिन जल का ही भोग लगा दिया। सारे साधु भी जल पी के रह गए।
           प्रभु की ऐसी परीक्षा थी कि रात्रि में भी जल का ही भोग लगा और सारे साधु भी जल पीकर भूखे ही सोए।
          वहाँ मन्दिर में नियम था कि शयन कराते समय भगवान को एक बड़ा सुन्दर पीताम्बर उढ़ाया जाता था तथा शयन आरती के बाद श्री रामप्रसाद जी नित्य करीब एक घण्टा बैठकर भगवान को भजन सुनाते थे। पूरे दिन के भूखे रामप्रसाद जी बैठे भजन गाते रहे और नियम पूरा करके सोने चले गए।
           धीरे-धीरे करके रात बीतने लगी। करीब आधी रात को पलटू बनिया के घर का दरवाजा किसी ने खटखटाया। वो बनिया घबरा गया कि इतनी रात को कौन आ गया। जब आवाज सुनी तो पता चला कुछ बच्चे दरवाजे पर शोर मचा रहे हैं–'अरे पलटू... पलटू सेठ ... अरे दरवाजा खोल...।' उसने हड़बड़ा कर खीझते हुए दरवाजा खोला। सोचा कि जरूर ये बच्चे शरारत कर रहे होंगे... अभी इनकी अच्छे से डांट लगाऊँगा।
           जब उसने दरवाजा खोला तो देखता है कि–चार लड़के जिनकी अवस्था बारह वर्ष से भी कम की होगी .... एक पीताम्बर ओढ़ कर खड़े हैं।
          वे चारों लड़के एक ही पीताम्बर ओढ़े थे। उनकी छवि इतनी मोहक .... ऐसी लुभावनी थी कि ना चाहते हुए भी पलटू का सारा क्रोध प्रेम में परिवर्तित हो गया और वह आश्चर्य से पूछने लगा–'बच्चों ...! तुम हो कौन और इतनी रात को क्यों शोर मचा रहे हो...?'
           बिना कुछ कहे बच्चे घर में घुस आए और बोले–हमें रामप्रसाद बाबा ने भेजा है। ये जो पीताम्बर हम ओढ़े हैं... इसका कोना खोलो... इसमें सोलह सौ रुपए हैं... निकालो और गिनो।'
           ये वो समय था जब आना और पैसा चलता था। सोलह सौ उस समय बहुत बड़ी रकम हुआ करते थे। जल्दी-जल्दी पलटू ने उस पीताम्बर का कोना खोला तो उसमें सचमुच चांदी के सोलह सौ सिक्के निकले। प्रश्न भरी दृष्टि से पलटू बनिया उन बच्चों को देखने लगा। तब बच्चों ने कहा–'इन पैसों का राशन कल सुबह आश्रम भिजवा देना।'
          अब पलटू बनिया को थोड़ी शर्म आई–'हाय...! आज मैंने राशन नहीं दिया... लगता है महन्त जी नाराज हो गए हैं... इसीलिए रात में ही इतने सारे पैसे भिजवा दिए।' पश्चाताप, संकोच और प्रेम के साथ उसने हाथ जोड़कर कहा–'बच्चों..! मेरी पूरी दुकान भी उठा कर मैं महन्त जी को दे दूँगा तो भी ये पैसे ज्यादा ही बैठेंगे। इतने मूल्य का सामान देते-देते तो मुझे पता नहीं कितना समय लग जाएगा।'
          बच्चों ने कहा–'ठीक है... आप एक साथ मत दीजिए... थोड़ा-थोड़ा करके अब से नित्य ही सुबह-सुबह आश्रम भिजवा दिया कीजिएगा... आज के बाद कभी भी राशन के लिए मना मत कीजिएगा।' पलटू बनिया तो मारे शर्म के जमीन में गड़ा जाए।
           वो फिर हाथ जोड़कर बोला–'जैसी महन्त जी की आज्ञा।' इतना कह सुन के वो बच्चे चले गए लेकिन जाते-जाते पलटू बनिया का मन भी ले गए।
          इधर सवेरे सवेरे मंगला आरती के लिए जब पुजारी जी ने मन्दिर के पट खोले तो देखा भगवान का पीताम्बर गायब है। उन्होंने ये बात रामप्रसाद जी को बताई और सबको लगा कि कोई रात में पीताम्बर चुरा के ले गया।
           जब थोड़ा दिन चढ़ा तो गाड़ी में ढेर सारा सामान लदवा के कृतज्ञता के साथ हाथ जोड़े हुए पलटू बनिया आया और सीधा रामप्रसाद जी के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा।
           रामप्रसाद जी को तो कुछ पता ही नहीं था। वे पूछें–'क्या हुआ... अरे किस बात की माफी मांग रहा है।' पर पलटू बनिया उठे ही ना और कहे–'महाराज रात में पैसे भिजवाने की क्या आवश्यकता थी... मैं कान पकड़ता हूँ आज के बाद कभी भी राशन के लिए मना नहीं करूँगा और ये रहा आपका पीताम्बर... वो बच्चे मेरे यहाँ ही छोड़ गए थे.... बड़े प्यारे बच्चे थे... इतनी रात को बेचारे पैसे लेकर आ भी गये... आप बुरा ना मानें तो मैं एक बार उन बालकों को फिर से देखना चाहता हूँ।'
          जब रामप्रसाद जी ने वो पीताम्बर देखा तो पता चला ये तो हमारे मन्दिर का ही है जो गायब हो गया था। अब वो पूछें कि–'ये तुम्हारे पास कैसे आया?' तब उस बनिया ने रात वाली पूरी घटना सुनाई। अब तो रामप्रसाद जी भागे जल्दी से और सीधा मन्दिर जाकर भगवान के पैरों में पड़कर रोने लगे कि–'हे भक्तवत्सल...! मेरे कारण आपको आधी रात में इतना कष्ट उठाना पड़ा और कष्ट उठाया सो उठाया मैंने जीवन भर आपकी सेवा की .... मुझे तो दर्शन ना हुआ ... और इस बनिए को आधी रात में दर्शन देने पहुँच गए।'
           जब पलटू बनिया को पूरी बात पता चली तो उसका हृदय भी धक् से होके रह गया कि जिन्हें मैं साधारण बालक समझ बैठा वे तो त्रिभुवन के नाथ थे... अरे मैं तो चरण भी न छू पाया। अब तो वे दोनों ही लोग बैठ कर रोएँ।
           इसके बाद कभी भी आश्रम में राशन की कमी नहीं हुई। आज तक वहाँ सन्त सेवा होती आ रही है। इस घटना के बाद ही पलटू बनिया को वैराग्य हो गया और यह पलटू बनिया ही बाद में श्री पलटूदास जी के नाम से विख्यात हुए।
          श्री रामप्रसाद जी की व्याकुलता उस दिन हर क्षण के साथ बढ़ती ही जाए और रात में शयन के समय जब वे भजन गाने बैठे तो मूर्छित होकर गिर गए। संसार के लिए तो वे मूर्छित थे किन्तु मूर्च्छावस्था में ही उन्हें पत्नियों सहित चारों भाइयों का दर्शन हुआ और उसी दर्शन में श्री जानकी जी ने उनके आँसू पोंछे तथा अपनी ऊँगली से इनके माथे पर बिन्दी लगाई जिसे फिर सदैव इन्होंने अपने मस्तक पर धारण करके रखा। उसी के बाद से इनके आश्रम में बिन्दी वाले तिलक का प्रचलन हुआ।
           वास्तव में प्रभु चाहें तो ये अभाव... ये कष्ट भक्तों के जीवन में कभी ना आए परन्तु प्रभु जानबूझकर इन्हें भेजते हैं ताकि इन लीलाओं के माध्यम से ही जो अविश्वासी जीव हैं... वे सतर्क हो जाएं... उनके हृदय में विश्वास उत्पन्न हो सके।
           जैसे प्रभु ने आकर उनके कष्ट का निवारण किया ऐसे ही हमारा भी कर दें। लिखने में जहाँ-जहाँ जो जो त्रुटियाँ रह गईं हैं, उनके लिए दया के सिन्धु वैष्णव जन हमें क्षमा करें।
                            
                  "सियापति श्रीरामचन्द्र की जय

शुक्रवार, 17 सितंबर 2021

कानू (हलुवाई) जाति के गोत्र, इष्टदेव एवं कुलदेव



 कानू (हलुवाईजाति के गोत्रइष्टदेव एवं कुलदेव

कानू (हलुवाई) जाति कश्यप गोत्र के माने जाते हैं । हलुवाई अपने इष्टदेव के रूप में मोदनसेन, यज्ञसेन, गणीनाथ तथा अन्य विभुतियों को पुजते हैं । वे विभिन्न देवी–देवता के रूप में गणपति, सूर्य, अग्नि, काली बन्दी का आराधना करते हैं । मूलतः हलुवाई के वंशज तीन सांस्कृतिक समूहों में होने का वर्णन अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा के वेबसाइट पर पाया गया है । मोदनसेनी हलुवाई मोदनसेन जी महाराज को, यज्ञसेनी हलुवाई यज्ञसेन जी महाराज को तथा मधेशी हलुवाई गणीनाथ जी महाराज से अपना वंश वृक्ष जुड़ा होने का विश्वास करते हैं । मोदनसेन जी कान्यकुब्ज (कन्नौज, उत्तरप्रदेश) में अवतरित हुए । यज्ञसेन जी बिठूर कानपुर (उत्तर प्रदेश) में अवतरित हुए । गणीनाथ जी गुरलामान्धता पर्वत पलवैया (बिहार) में अवतरित हुए । इसी क्षेत्रीय धरातल पर इनके वंशजों का विस्तार हुआ । अर्थात गणीनाथ, मोदनसेन और यज्ञसेन जी महराज तीनों समूह के कुलदेवता के रूप में पूजित होने का वर्णन पाया जाता हैं ।

वैश्य वंशवृक्ष की जड़ में मूल देवता भलनन्दन जी महाराज हैं । उपर अंकित श्लाकों के अनुसार प्रजापति ब्रह्मा के उरू देश से उत्पन्न भलनन्दन के पौत्र के रूप में मोदन उत्पन्न हुए । प्रजापति के द्वारा आयोजित यज्ञ में मोदनसेन जी महाराज को खाद्य–व्यवसायी (हलवाई) का चरित्र प्रदान किया गया उल्लेख होने से उनका वंशज मोदनसेनी (मोदनसेनी हलवाई) कहलाए । उसी तरह राजा दक्ष के यज्ञ के क्रम में यज्ञसेन उत्पन्न हुए । यज्ञसेन के वंशजो द्वारा यज्ञ–निर्मित पदार्थों को व्यापार करने के कारण यज्ञसेनी (यज्ञसेनी हलवाई) कहलाए । संत गणीनाथ एघारवीं सदी में उत्पन्न हुए । वे शिव की अवतार कहलाते हैं । गणीनाथ जी का पिता मनसा राम जी हलुवाई के १४ कुलदेवों में पूजित हैं । आस्था के आधार पर हलवाई जाति में कुलदेवता निम्न प्रकार हैं —

१.      हलवाई (मोदनवाल) ः मोदनसेन जी महाराज

२.      हलवाई (यज्ञसेनी) ः यज्ञसेन जी महाराज

३.      कानू हलवाई ः गणीनाथ जी महाराज

४.      कान्य कुब्ज वैश्य (भूर्जि) ः बाबा पलटू दास

५.      भौज्य हलवाई ः चन्द्रदेव जी महाराज

६.      क्रोंच हलवाई ः कंकाली बाबा

७.      गुडिया वैश्य ः यह घटक उड़ीसा प्रान्त में गुड का व्यवसाय और गुड की स्वादिष्ट मिष्ठान बनाने का कार्य करते हैं ।

मोदनसेन जी महाराज

आदि काल में प्रजापति ब्रह्मा के द्वारा विश्व कल्याण के लिए सभी देवी–देवता, ऋषि सम्मिलित महायज्ञ आयोजन किया गया । यज्ञ में मोदनसेन जी पर भोजन व्यवस्था का दायित्व था । भांती भांती के व्यञ्जन और मिष्ठान बनाकर यज्ञजनों को सन्तुष्ट करने के कारण उनको इस कार्य (पाकशास्त्र) के आचार्य घोषित किया गया । बाद में उनके वंशज इसी चक्र द्वारा संसार में फैले । मोदनसेन जी महाराज भलनन्दन जी की चौथी पीढ़ी में तथा उनके पूवर्ज मनु महाराज से सातवीं पीढ़ी में उत्पन्न हुये थे । आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व श्री मोदनसेन जी महाराज की जयन्ती कार्तिक शुक्ल (अक्षय नवमी) को मनाने की परम्परा मिली है ।

 यज्ञसेन जी महाराज

प्रजापति दक्ष के यज्ञ के समय महर्षि भृगु ने ऋचाओं के गायन–आवाहन के साथ, ज्योंही यज्ञकुण्ड की दक्षिणाग्नि में घृताहुति दी, त्योंही यज्ञाग्नि से तप्त स्वर्ण की सी कांति लिऐ एक यज्ञ पुरुष प्रकट हुए । यह यज्ञ पुरुष कस्तुरी मृगों से जुते हुए, दिग्विजयी रथ पर आरूढ़, मणिमुकुटों को धारण किये हुए थे । उन्हें महर्षि मृगु ने ऋभु यज्ञसेन नाम से सम्बोधित किया । यज्ञसेन का विवाह ऋषिपुत्री दक्षिणा से हुआ और उनके ९२ पुत्ररत्न हुए । जो यज्ञ–निर्मित पदार्थों को बनाते व व्यापार करते थे । पुराण के प्रथम अंक के सातवें अध्याय के श्लोक ९३ से २९ तक यज्ञसेन वंश का वर्णन मिलता है । यज्ञसेन महाराज के वंशजो को यज्ञसेनी हलुवाई कहा जाता है । यज्ञसेन जी गुरु पूर्णिमा को अवतरित हुए थे । यज्ञसेन जी का उद्भव कहाँ हुआ था इस विषय में मंगली प्रसाद गुप्त ने लिखा है कि ‘बिठूर, जिला कानपुर (उत्तर प्रदेश) में हुए थे ।’ कुछ लोगों का मत है कि कानपुर से कुछ किलोमिटर दूर गंगा–तट पर जाजमऊ में हुये थे । तिसरा मत यह है कि यज्ञसेन जी महाराज मथुरा में हुये थे । कुछ का मत है कि यज्ञपुर तीर्थ (बिहार–उड़िसा) में हुये थे । इनमें बिठूर (कानपुर) ही ठीक प्रतीत होता है, यहाँ यज्ञ कीलक (कीलों) ब्रह्मशिला है, जहाँ पर यज्ञसेन महाराज ने एक महान यज्ञ किया था ।

गणीनाथ जी महाराज

वैशाली (बिहार ) की धरती मानवता के लिए अपने सर्वश्रेष्ठ योगदानो के लिए जानी जाती है . लोकतंत्र की जननी होने से लेकर वर्द्धमान महावीर की जन्मभूमि तथा गौतम वुद्ध की कर्मभूमि होने का सौभाग्य प्राप्त है . कलांतर में उसी क्रम में संत प्रवर बाबा गणीनाथ जी महाराज की चरण धूलि से पवित्र होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था .संत गणीनाथ  जी का अवतरण भाद्र कृष्ण पक्छ जन्माष्टमी के बाद आगत शनिवार को वैशाली जिला के पलवैया नामक स्थान पर हुआ था .

भगवान शिव के मानस पुत्र अवतारी श्री गणीनाथ  जी महाराज के पालक पिता और माता का नाम क्रमशः श्री मनसा राम साह एवं श्रीमती पनमतिया या पून्यमती था जो जाति के कानू थे  . श्री गनिनाथ जी महाराज की शादी खेमा सती ( छेमा सती ) देवी के संग हुआ था , जिनसे तिन पुत्र -श्री गोविन्द जी महाराज ( बाल ब्रहमचारी) , श्री रायचंद्र राय जी , श्री श्रीधर राय जी थे तथा शीलमती `और सोनमती नामक दो पुत्रिया थी .गृहस्थ जीवन में होने के बावजूद भी श्री गनिनाथ जी का अवतरण लोक कल्याण तथा परम मानवीय मूल्यों की स्थापना हेतु था .उन्होंने अपनी आलौकिक शक्तियों से ना केवल समाज में व्याप्त बुराइयो को संवर्द्धन किया बल्कि साथ -साथ समाज में व्याधिग्रस्त तथा असाध्य रोगों से व्यथित लोगो का काया कल्प किया . स्थानीय राजा धरमपाल की आँखों की ज्योति और उसके एकलौते पुत्र की सर्पदंश से मृत्यु पश्चात भी जीवित होने की चमत्कार से प्रभावित होकर पलवैया  राज उपहार स्वरूप श्री गनिनाथ जी महाराज को देने का चर्चा मिलाता है . बिहार राज्य के विभिन्न भाषाओ के लोक गीतों, लोक कथाओ में बाबा की महिमा  ,  चमत्कार , जीवन लीला , पुत्रो की शौर्य -पराक्रम, उनके विवाह  और लाल खान से युद्ध का चर्चा मगही, भोजपुरी , मैथली , अंगिका  में विस्तृत रूप में है .

बाबा गनिनाथ जी महाराज ने अपने राज्य में कृषि ,गौ – रकछा और वाणिज्य विकाश पर बल दिया . वे तन्त्र मन्त्र , योग विदध्या , वेद तत्वों  के मर्मग्य ज्ञाता , कुशल ज्ञानी और सैन्य संचालन में निपूर्ण थे . वे महान कर्मयोगी , संत- महात्मा, साधक , योगिधिराज़ और क्रन्तिकारी समाज सुधारक थे . धर्म की रक्छा के लिए शस्त्र उठाकर आतातायियो को परास्तकर तत्कालीन समाज को त्राण दिलाया वही सत हृदय का परिचय देते हुए युद्ध में बंदी लाल खान जैसे मुख्य आततायी का हृदय परिवर्तन कर अपना मुख्य सिपाहसलार ( शिष्य ) बना लिया . बाबा गनिनाथ जी ने कानू या मद्धेशिय वैश्य में मूल डीह का सरचना कर वर्ण संकट के दोष से उबरा . इस प्रकार संत शिरोमणि श्री गनिनाथ जी ने भारत के महान संत परंपरा के उच्चतम जीवन मूल्यों को पुनर्जीवित किया . बाबा गनिनाथ जी ने सभी जाति, वर्णो धर्मो के भेदभाव को भुलाकर मानवता के आदर्श का पाठ पढाया और जन कल्याण की सेवा में अपना जीवन को परित्याग किया . आज भी श्री गनिनाथ जी की पूजा कूल देवता के रूप में किया जाता है और उनकी भक्तो की संख्या करोडो से उपर भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशो के अतिरिक्त नेपाल, वर्मा ,बंगला देश आदि देशो में फैले हुये .

समाज के कुछ व्यक्तियों को बाबा गनिनाथ जी को नाथ संप्रदाय से जूडा ने का भ्रम डाला जा रहा है, जो जन भावनाओ, कूल देवता के प्रति आस्था और इतिहास के प्रति अन्याय है . यह सत्य है की नाथ सम्प्रदाय में गहनी नाथ नामक महान संत हुए जो नवो नाथ में से एक नाथ थे, उनके नाम के साथ आंशिक उच्चारण की समानतावश लोग गनिनाथ और गहनिनाथ को भूल या अज्ञानता वश एक मान कर चर्चा कर देते है.  इस सन्दर्भ में लगभग अधिसंख्य समाज के इतिहासकारों , विद्वतजनों ने अपनी- अपनी लेखो, पुस्तकों में बाबा गनिनाथ जी को नाथ संप्रदाय से अलग माना  है . इस संदरभ्य में मेरी समाज के कई बुजुर्गो , भक्तो और इतिहास के ज्ञाताओ से बात हुआ जिसमे  श्री भोला नाथ “ मधुकर “ बाबा गनिनाथ उपन्यास के रचयिता, श्री गंगा प्रसाद आजाद सतमाल पुरी जी, कामेश्वर प्रसाद जी , डा पुष्पा गुप्ता , प्रध्यापक व सहयोगी डा सरोज प्रधान द्वारा रचित अन्वेषण पुस्तिका बाबा  गनिनाथ , स्वय डा सरोज प्रधान जी , पलावैया धाम के मुख्य पंडा जी, बिभिन्न स्मारिकाओ, अपनी वाणी के मुख्य सम्पादक स्व रामावतार गुप्ता द्वारा आलेख , लोक गीतों ( मगही,भोजपुरी, मैथली, ब्रज्जिका , अंगिका ) में बाबा गनिनाथ जी के जीवन गाथाओ, आदि से  बाबा गनिनाथ जी के जीवन चरित्र का सजीव वर्णन मिलता है.

कानू (हलवाई )शब्द की उत्पति

हलवाई भारत में मिष्ठान बनाने वाले को कहते हैं। हलवाई भारत और पकिस्तान में एक जाति हैं जिनका मिठाईयों का पारंपरिक व्यवसाय होता हैं। अरबी शब्द हलवा, जिसका अर्थ मिठाई होता हैं, से हलवाई शब्द की उत्पत्ति मानी जाती हैं। हलवाई शब्द प्रसिद्द भारतीय मिष्ठान हलवा से लिया गया हैं। हलवाई हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्म में पाया जाता हैं। मोदनवाल, कांदु, आदि हलवाई समुदाय द्वारा प्रयोग किया जाने वाला उपनाम हैं।

फिल्म में बॉलीवुड अभिनेता शाहरुख खान और अभिनेत्री दीपिका पादुकोण स्टारिंग फिल्म चेन्नई एक्सप्रेस में शाहरुख खान, राहुल नामक हलवाई के किरदार में थे। जिसमे दीपिका पादुकोण (मीना के किरदार में) “डोंट अंडरएस्टीमेट द पॉवर ऑफ़ हलवाई” डायलॉग बोलते हुई दिखी।

कानू (हलुवाईजाति का विस्तार

आदि पुरुष श्री मोदनसेन महाराजा के वंशावली सम्बद्ध ग्रन्थों के अनुसार वैश्यों की ३५२ उपजातियां तथा १४४४ ग्रन्थों की संख्या बताई गई है । कानू (हलुवाई) जाति आज संसार भर में फेले हैं । परन्तु इस जाति का उद्गमस्थल कहाँ है ? कुलपुरुष मोदन जी ने अपना वंश पृथ्वी के किस खण्ड से विस्तार किया ? महाराज भलनन्दन जी कान्यकुब्ज देशाधिपति थे । जिनकी राजधानी महोदयपुरी थी । जो अब कन्नौज के रूप में जानी जाती है और यह उत्तर प्रदेश के अन्तर्गत पड़ता है । अस्तु मोदनसेन का विस्तार कान्यकुब्ज देश से हुआ । कालान्तर में मोदन वंशीय वैश्यों का कई वर्ग और उपवर्ग बना ।

यज्ञसेन जी का वंशज कान्यकुब्ज से निचे कानपुर क्षेत्र से हुआ और गणीनाथ जी का वंशज उससे निचे पटना आसपास से चारो ओर फैले । वैश्विक आप्रवासन का प्रभाव इन पर भी पड़ा । और हजारौं वर्ष के दौरान ये संसार भर फैले । कानू (हलुवाई) जाति का कान्यकुब्ज देश से लेकर मध्यदेशीय जनपदों तक का प्राचीन बसोवास आज भारत, नेपाल, पाकिस्तान, बंगलादेश में बटा हुआ है । नेपाल के मधेशी हलुवाई साह, साहु, साउ, गुप्ता, दास सरनेम से जाने जाते हैं । हलुवाई जाति भारत के विहार, वंगाल, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मगध, कन्नौज आदि क्षेत्र से ताल्लुक रखता है । उत्तर प्रदेश में मोदनवाल, यज्ञसेनी, हलुवाई, गुप्ता, पंजाव मे कम्बोज, अडोडा, उडिसा में गुडिया, पश्चिम बंगाल मे मायरा, दास टाइटल से जाने जाते हैं । इनका अभी तक ९–१० उप समूह देखा गया है । जैसे मधेशीया, मोदनसेनी, कान्यकुब्ज, यज्ञसेनी, मघिया, जैनपुरी, कानवो, कैथिया, नगारी, रावतपुरिया, बदशाही । इनकी भाषा क्षेत्र के आधार पर हिन्दी, मैथिली, बंगाली, अवधी, भोजपुरी रहा है । नेपाल मे हिमाली जिला को छोडकर महाभारत पहाड़ एवं तराई भूभाग के प्रायः सभी जगह इनकी कहीं सघन तो कहीं अल्प उपस्थिति पाया जाता है । फिर भी पूर्वी तराई के जिलों में तुलनात्मक रूप में अधिक जनसंख्या पाया जाता है । नेपाल में हलुवाई जाति सामाजिक–पिछड़ेपन एवं विभेद का सिकार हैं । सामाजिक चेतना की कमी के कारण यह अपनी मानवीय मूल्य, धार्मिक मान्यता, सांस्कृतिक गौरव, राजकीय अवसर, व्यावसायिक संरक्षण सर्वपक्षीय हक और अधिकार से वञ्चित हैं ।

 

-गोत्रों का महत्व एवं उत्पति 

गोत्र की परिभाषा :- गोत्र जिसका अर्थ वंश भी है । यह एक ऋषि के माध्यम से शुरू होता है और हमें हमारे पूर्वजों की याद दिलाता है और हमें हमारे कर्तव्यों के बारे में बताता है ।

गोत्रों का महत्व :- जाति की तरह गोत्रों का भी अपना महत्‍व है ।
1. गोत्रों से व्‍यक्ति और वंश की पहचान होती है ।
2. गोत्रों से व्‍यक्ति के रिश्‍तों की पहचान होती है ।
3. रिश्‍ता तय करते समय गोत्रों को टालने में सुविधा रहती है ।
4. गोत्रों से निकटता स्‍थापित होती है और भाईचारा बढ़ता है ।
5. गोत्रों के इतिहास से व्‍यक्ति गौरवान्वित महसूस करता है और प्रेरणा लेता है ।

गोत्रों की उत्‍पत्ति- हिन्दू धर्म की सभी जातियों में गोत्र पाए गए है । ये किसी न किसी गाँव, पेड़, जानवर, नदियों, व्यक्ति के नाम, ॠषियों के नाम, फूलों या कुलदेवी के नाम पर बनाए गए है । गोत्रों की उत्‍पत्ति कैसे हुई इस सम्‍बंध में धार्मिक ग्रन्‍थों एवं समाजशास्त्रियों के अध्‍ययन का सहारा लेना पड़ेगा ।

धार्मिक आधार- महाभारत के शान्‍तिपर्व (296-17, 18) में वर्णन है कि मूल चार गोत्र थे- अंग्रिश, कश्‍यप, वशिष्‍ठ तथा भृगु । बाद में आठ हो गए जब जमदन्गि, अत्रि, विश्‍वामित्र तथा अगस्‍त्‍य के नाम जुड़ गए । गोत्रों की प्रमुखता उस काल में बढी जब जाति व्‍यवस्‍था कठोर हो गई और लोगों को यह विश्‍वास हो गया कि सभी ऋषि ब्राह्मण थे । उस काल में ब्राह्मण ही अपनी उत्‍पत्ति उन ऋषियों से होने का दावा कर सकते थे । इस प्रकार किसी ब्राह्मण का अपना कोई परिवार, वंश या गोत्र नहीं होता था । एक क्षत्रिय या वैश्‍य यज्ञ के समय अपने पुरोहित के गोत्र के नाम का उच्‍चारण करता था । अत: सभी स्‍वर्ण जातियों के गोत्रों के नाम पुरोहितों तथा ब्राह्मणों के गोत्रों के नाम से प्रचलित हुए । शूद्रों को छोड़कर अन्‍य सभी जातियों जिनको यज्ञ में भाग लेने का अधिकार था उनके गोत्र भी ब्राह्मणों के ही गोत्र होते थे । गोत्रों की समानता का यही मुख्‍य कारण है । शूद्र जिस ब्राह्मण और क्षत्रिय परिवार का परम्‍परागत अनन्‍तकाल त‍क सेवा करते रहे उन्‍होंने भी उन्‍हीं ब्राह्मणों और क्षत्रियों के गोत्र अपना लिए । इसी कारण विभिन्‍न आर्य और अनार्य जातियों तथा वर्णों के गोत्रों में समानता पाई जाती है । भाटी, पंवार, परिहार, सोलंकी, सिसोदिया तथा चौहान राजपूतों, मालियों, सरगरों तथा मेघवालों आदि कई जातियों में मिलना सामान्‍य बात है । सारांश में पुरोहितों तथा क्षत्रियों के परिवारों की जिन जातियों ने पीढ़ि सेवा की उनके गोत्र भी पुरोहितों और क्षत्रियों के समान हो गए । राजघरानों के रसोई का कार्य करने वाले सूद तथा कपड़े धोने का कार्य करने वाले धोबियों के गोत्र इसी वजह से राजपूतों से मिलते हैं । लम्‍बे समय तक एक साथ रहने से भी जातियों के गोत्रों में समानता आई ।

समाजशास्त्रिय आधार- समाजशास्त्रियों ने सभी जातियों के गोत्रों की उत्‍पत्ति के निम्‍न आधार बताए हैं-
1. परिवार के मूल निवास स्‍थान के नाम से गोत्रों का नामकरण हुआ ।
2. कबीला के मुखिया के नाम से गोत्र बने ।
3. परिवार के इष्‍ट देव या देवी के नाम से गोत्र प्रचलित हुए ।
4. कबिलों के महत्‍वपूर्ण वृक्ष या पशु-पक्षियों के नाम से गोत्र बने ।

समाजशास्त्रियों द्वारा उपरोक्‍त बताए गए गोत्रों की उत्‍पत्ति के आधार बहुत ही महत्‍वपूर्ण है । सभी जातियों के गोत्रों की उत्‍पत्ति उपरोक्‍त आधारों पर ही हुई है ।

बीसवीं शताब्दी के पूर्व कानू समाज

भारत वर्ष के मानवीय भूगोल कर्म प्रधान रहा है । कर्म या व्यवसाय के आधार पर आज भी व्यक्ति व उनका सन्तती सम्बोधित होता है । किसी खास कर्म–व्यवसाय में संलिप्त व्यक्ति, परिवार और विस्तारित पारीवारिक संगठनों ने जातीय–संज्ञा प्राप्त की ।

देश, काल और परिस्थिति की धरातल पर सम्पूर्ण मानवीय समाज को कर्म–व्यवसाय के आधार पर चार वर्ण में वर्गीकृत कर जातीय संरचना का निर्माण हुआ । ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य व शूद्र । ईन चार वर्णों के भितर विभिन्न जाति एवं उपजाति विकसित हुआ । इन्हीं वर्ण एवं जातीय संरचना में वैश्य वर्ण अन्तर्गत हलवाई जाति बना । हलवाई को नेपाल में हलुवाई बोला जाता है । हलवाई का पृष्ठभूमि, चरित्र, जीवन और आजीविका ‘अन्न एवं अन्य फसल उगाना, उन पदार्थाें का पाककला के माध्यम से स्वादिष्ट व्यञ्जन और मिष्टान बनाना तथा देवी–देवता, ऋषि–मुनि, पितृ एवं समस्त समाज की क्षुधा को तृप्त करने’ जैसे सर्वाधिक प्राचीन सामाजिक आयाम और प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है । हमारा बहुत पिछला जीवन कबिलाई संस्कृति से जुड़ा हुआ है । कदाचित उन समूहों मे भोजन–प्रभारी (या समूह) भी जाति विशेष के रूप में सम्बोधित होते थे । हमें हमारी आदिम इतिहास, संस्कृति और पहचान पर गर्व है । हम अपनी विशिष्टताओं का स्मरण कर रोमाञ्चित होते हैं । और, यदाकदा टूटी–फूटी जातीय इतिहास और अशिक्षा–गरिबी से ग्रस्त अपने कुटुम्बों की बद्हाली देखकर दुःखी भी होते हैं ।

सम्भवतः इतिहासकारों ने जितनी सजगता एवं तत्परता राजवंशो के इतिहास लेखन में दिखाई है, उतनी जातीय इतिहास लेखन में नहीं । यही कारण है कि जातीय एवं उपजातीय इतिहास विशुद्ध रूप से सामने नहीं आ पाया है । यह खुशी की बात है कि सदियों से शोषित, पीडित, उपेक्षित आम जातियों में २० वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जातीय जागरण का श्री गणेश हुआ और वर्तमान दौर में यह एक उचाइ पर है । सांस्कृतिक जिज्ञासा, पहचान और समान जातीय महता की खोज तीव्र रूप में बढ़ गया है । हलवाई जाति भी इससे अछुता नहीं है ।

भारतीय वाङमय के अनुसार मोदनसेन जी महाराज, यज्ञसेन जी महाराज, गणीनाथ जी महाराज तथा महान संत पलटु दास एवं महाकवि जय शंकर प्रसाद जैसे वैश्य–हलुवाई जाति की महानतम विभुति इस समाज के नहीं बल्कि विश्व के गौरव हैं ।

हलुवाई जाति का प्रादुर्भाव और इतिहास की बातें वेदकाल से लेकर वर्तमान काल खण्डों तक विभिनन समय में सिर्जित यजुर्वेद (अध्याय–३२ सुक्ति–१२), अथर्ववेद गरुड़ पुराण (अध्याय ४४ क–१८), वराहपुराण, मनुस्मृति, गर्ग संहिता (खण्ड–७ अध्याय–८), वर्णविवेक चन्द्रिका, वर्ण विवेकसार जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों में उल्लेख है । आधुनिक काल में विभिन्न विद्वानों द्वारा हलुवाई जाति पर शोध कर विभिन्न ग्रन्थ, शोधपुस्तक, इन्टरनेट प्रकाशित किया गया है । शताब्दी पूर्व स्थापित अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा से लेकर उसके बाद विभिन्न काल में विभिन्न स्थान पर स्थापित संघ–संगठनों ने जाति एकीकरण का प्रयास किया है, जातीय इतिहास और संस्कृति का अध्ययन कर प्रसारित किया है और आधुनिक राज्य व्यवस्था में जातीय हिस्सा प्राप्त करने में क्रियाशील हैं ।

‘वर्णविवेक चन्द्रिका’ में सृष्टि का उत्पत्ति क्रम दिखाते हुए वैश्यों की उत्पत्ति और बाद में हलुवाई वैश्यों की उत्पत्ति का वर्णन निम्न लिखित अनुसार है —

देव देव महादेव लोकानां हितकाकार ।

वर्णानामाश्रमाणां च संकाराणां तथैवच ।।

उत्पत्तिं श्रोतु मिच्छासि विस्तरेण कृपानिधे ।

कृया तृत्या महादेव, फलौ तिष्ठेच मानावः ।।

अर्थात— ‘श्री पार्वती जी ने देवों के देव श्री महादेव जी से पूछा कि हे कृपानिधे ! मनुष्यों के वर्ण, आश्रम, उत्पत्ति तथा संकरों के भेद क्या है ? कृपया लोकों के हित के लिए विस्तार पूर्वक कहिये ।’ इस पर श्री महादेव जी ने कहा—

श्रृणु देवी प्रवक्ष्यामि जातीनांच विनिर्णयम् ।

अव्यक्ताच समुत्पन्ना ब्रह्मविष्णु महेश्वराः ।।

ब्राह्मण निर्मिता वर्णामुख बाहुरूपादतः ।

ब्राह्मणः क्षत्रियों वैश्यः शूद्रश्रैव यथा क्रमम ।।

अर्थात— ‘हे देवी ! सुनो ! जातियों का विवरण इस तरह है कि, पहले अव्यक्त यज्ञ से ब्रह्मा, विष्णु , महेश्वर उद्धत हुए । फिर प्रजापति (ब्रह्मा) ने मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रीय, उरू से वैश्य और पाद से शूद्र वर्ण रचे ।’ फिर

मरीचिरत्र्यंगिरसौ पुलस्यः पुलहः क्रतुः ।

भृगुर्वशिष्ठ श्रयवो नारदो दक्ष एच च ।।

तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च ब्राह्मणेषु प्रतिष्ठिताः ।

वेदाध्ययन सम्पन्ना स्त्रिषु वर्णाषु पूजिताः ।।

अर्थात— मरीचि, अंगिरा, पुलस्य, पुलह, क्रत, भृगु, वशिष्ठ, श्रयव, नारद और दक्ष के पुत्र प्रभृति से ब्राह्मणों का वंश चला । और ये, वेदादि से सम्पन्न तीनों वर्णो से पूजित और गोत्रकार ऋषि हुए । और —

ब्राह्मणो बाहु देशाश्च मनुः स्वायंम्भुवोऽभवत् ।

वाम वाहोः समुत्पन्नां शतरूपा पतिव्रताः ।।

तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च क्षत्रवंशे प्रतिष्ठिताः ।

चतुर्दशमनूनां च वंशास्ते क्षत्र जातयः ।।

अर्थात— प्रजापति के दाहिने बाहु देश से स्वायम्भुवमनु तथा बाहु से उनकी स्त्री शतरूपा नास्त्री उत्पनन हुई । इनके पुत्र पौत्र प्रभृति क्षत्रीय वंश के प्रतिष्ठित हुए ।

इसके बाद —

अरूदेशात्समुतपन्नों ब्राह्मणः प्राणवल्लभे ।

भलनदनेति विख्यातस्तस्य पत्नी मरूत्वति ।।

वत्समीति सुतस्तस्य प्रांशुस्तस्याऽभवनसुतः ।

प्राशोः पुत्राः षडासन्वै तेषां नामानिमे श्रृणु ।।

मोदः प्रमोदो बालश्च मोदनश्च प्रमर्दनः ।

शंकुकर्णेति विख्यातस्तेषां कर्म पृथक् पृथक ।।

अर्थात— प्रजापति के उरू देश से वैश्यों के मूलपुरुष भलनन्दन और उनकी स्त्री मरूत्वती नाम से पैदा हुई । इनके पुत्र वत्सप्रीति, वतसप्रीति से प्रांशु हुए । प्रांशु के छः पुत्र हुए जिनका नाम क्रमशः मोद, प्रमोद, बाल, मोदन, प्रमर्दन, शंकु और कर्ण हुआ । इनके कर्म भी पृथक पृथक हुए ।

मोदनस्य च वंशाये मोदकानां प्रकारकाः ।

वश्य वृत्ति समाश्रित्य संजाताः पृथिवीतले ।।

अर्थात— मोदन के वंश में, मोदक (लड्डू) आदि का व्यवसाय करने वाले— वैश्य उत्पन्न हुए । जो कि इस वैश्य वृत्ति के द्वारा संसार में फैले । वर्णविवेक चन्द्रिका के अनुसार भलनन्दन और मरूत्वती नाम से उत्पन्न मोदन से हलुवाई जाति की विकास हुई ।

जिस तरह माली द्वारा तोडा गया फूल, डोम द्वारा बनाया गया बा“स का वर्तन, कुम्हार द्वारा बनाया गया मिट्टी का वर्तन धर्म कार्य हेतु शुद्ध माना गया हैं, उसी तरह सिर्फ हलुवाई द्वारा बनायी गई नेवैद्य ही देवी देवता को अर्पण करने के लिए शुद्ध माना गया हैं ।

मोदनसेन, मोदक और मोदनवाल

मोदनसेन महाराजा के बाद व्यञ्जन÷मिष्ठानादि के लिए जातीय कर्म में निरूपित हुए । उनका मूल नाम ‘मोदन’ से मोदक शब्द बना जिसका तात्पर्य सर्वोत्कृष्ठ मिष्ठान्न होता है । संस्कृति में ‘मोदक’ शब्द का अर्थ इस प्रकार दर्शाया गया है— मुद वर्ष ददति मोदक  यानि जो सबको आनन्दित करें । मोद से ही मधु अर्थात मिठा होता है । उसी तरह मोदन का अर्थ बताया गया है— जिसमें सबको आनन्दित करने की क्षमता निहित हो । इस तरह संस्कृत के भावार्थ में ‘मोदन’ एक व्यक्तित्व के रूप में और ‘मोदक’ एक वस्तु के रूप में प्रतीत होता है ।

मोदक को बोलचाल में लड्डु कहते हैं । एभयउभि न्चयगउक क्ष्लमष्बके वेवसाइट के अनुसार मिष्ठान बनाने बाले हलुवाई प्रथम पुजीत भगवान् श्री गणेश जी का प्रिय भोजन मोदक (लड्डु) बनाने वाले के नाम से जाने जाते हैं । इसिलिए मोदक बनाने वाले मोदनवाल के रूप में परिचित हैं । आटा, चिनी, घी, बदाम, पिस्ता और केशर के मिश्रण से बनने वाला स्वादिष्ट मिष्टान्न ‘हलवा’ बनाने वाले को हलवाई कहा गया है ।

किन्तु अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा (भदोही, संतकवीरनगर, उत्तरप्रदेश) इस बात से सहमत नहीं है । महासभा की शताब्दी प्रवाह स्मारिका के अनुसार एक मात्र ‘हलवा’ से ‘हलवाई’ समझना उचित नहीं है । क्यों कि हलवा शब्द यहाँ का नहीं है— अरब आदि यवन देशों का है । यहाँ इस तरह के मिष्ठान को ‘मोहनभोग’ कहा जाता है । हलुवाई शब्द हलवा बनाने को लेकर नहीं, बल्कि ‘हलवाही’ शब्द अपभ्रंश होकर हलवाई हुआ जिसका तात्पर्य हल जोतना होता है । हलवाही कर अन्न उगाना और उसका मोदक आदि मिष्ठान सहित विभिन्न व्यञ्जन बनाने के कारण ये हलवाई तथा मोदनवाल आदि शब्दों से परिचित हुए । ‘वाल’ शब्द समूह वाचक है । संस्कृत में इसका अर्थ है— वृक्ष । ये चारो ओर से मिट्टी के घेरे से मेढ़ बन्दी कर दी जाती है । उसे वाल कहा गया है । अतः मोदनवाल सगुणों से परिपूर्ण प्रतीत होता है । हलुवाई जाति विशेष को मोदनवाल टाइटिल से पुकारा जाता था । आज हलुवाई जाति विभिन्न टाइटिल प्रयोग करने लगे है.। मोदनवाल हलुवाई का इतिहास मोदनसेन महाराजा के साथ शुरू होता है । मोदक बनाने वाले मोदनसेन कहलाए । की खोज तीव्र रूप में बढ़ गया है । हलवाई जाति भी इससे अछुता नहीं है ।

भारतीय वाङमय के अनुसार मोदनसेन जी महाराज, यज्ञसेन जी महाराज, गणीनाथ जी महाराज तथा महान संत पलटु दास एवं महाकवि जय शंकर प्रसाद जैसे वैश्य–हलुवाई जाति की महानतम विभुति इस समाज के नहीं बल्कि विश्व के गौरव हैं ।

हलुवाई जाति का प्रादुर्भाव और इतिहास की बातें वेदकाल से लेकर वर्तमान काल खण्डों तक विभिनन समय में सिर्जित यजुर्वेद (अध्याय–३२ सुक्ति–१२), अथर्ववेद गरुड़ पुराण (अध्याय ४४ क–१८), वराहपुराण, मनुस्मृति, गर्ग संहिता (खण्ड–७ अध्याय–८), वर्णविवेक चन्द्रिका, वर्ण विवेकसार जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों में उल्लेख है । आधुनिक काल में विभिन्न विद्वानों द्वारा हलुवाई जाति पर शोध कर विभिन्न ग्रन्थ, शोधपुस्तक, इन्टरनेट प्रकाशित किया गया है । शताब्दी पूर्व स्थापित अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा से लेकर उसके बाद विभिन्न काल में विभिन्न स्थान पर स्थापित संघ–संगठनों ने जाति एकीकरण का प्रयास किया है, जातीय इतिहास और संस्कृति का अध्ययन कर प्रसारित किया है और आधुनिक राज्य व्यवस्था में जातीय हिस्सा प्राप्त करने में क्रियाशील हैं ।

‘वर्णविवेक चन्द्रिका’ में सृष्टि का उत्पत्ति क्रम दिखाते हुए वैश्यों की उत्पत्ति और बाद में हलुवाई वैश्यों की उत्पत्ति का वर्णन निम्न लिखित अनुसार है —

देव देव महादेव लोकानां हितकाकार ।
वर्णानामाश्रमाणां च संकाराणां तथैवच ।।
उत्पत्तिं श्रोतु मिच्छासि विस्तरेण कृपानिधे ।
कृया तृत्या महादेव, फलौ तिष्ठेच मानावः ।।

अर्थात— ‘श्री पार्वती जी ने देवों के देव श्री महादेव जी से पूछा कि हे कृपानिधे ! मनुष्यों के वर्ण, आश्रम, उत्पत्ति तथा संकरों के भेद क्या है ? कृपया लोकों के हित के लिए विस्तार पूर्वक कहिये ।’ इस पर श्री महादेव जी ने कहा—

श्रृणु देवी प्रवक्ष्यामि जातीनांच विनिर्णयम् ।
अव्यक्ताच समुत्पन्ना ब्रह्मविष्णु महेश्वराः ।।
ब्राह्मण निर्मिता वर्णामुख बाहुरूपादतः ।
ब्राह्मणः क्षत्रियों वैश्यः शूद्रश्रैव यथा क्रमम ।।

अर्थात— ‘हे देवी ! सुनो ! जातियों का विवरण इस तरह है कि, पहले अव्यक्त यज्ञ से ब्रह्मा, विष्णु , महेश्वर उद्धत हुए । फिर प्रजापति (ब्रह्मा) ने मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रीय, उरू से वैश्य और पाद से शूद्र वर्ण रचे ।’ फिर

मरीचिरत्र्यंगिरसौ पुलस्यः पुलहः क्रतुः ।
भृगुर्वशिष्ठ श्रयवो नारदो दक्ष एच च ।।
तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च ब्राह्मणेषु प्रतिष्ठिताः ।
वेदाध्ययन सम्पन्ना स्त्रिषु वर्णाषु पूजिताः ।।

अर्थात— मरीचि, अंगिरा, पुलस्य, पुलह, क्रत, भृगु, वशिष्ठ, श्रयव, नारद और दक्ष के पुत्र प्रभृति से ब्राह्मणों का वंश चला । और ये, वेदादि से सम्पन्न तीनों वर्णो से पूजित और गोत्रकार ऋषि हुए । और —

ब्राह्मणो बाहु देशाश्च मनुः स्वायंम्भुवोऽभवत् ।
वाम वाहोः समुत्पन्नां शतरूपा पतिव्रताः ।।
तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च क्षत्रवंशे प्रतिष्ठिताः ।
चतुर्दशमनूनां च वंशास्ते क्षत्र जातयः ।।

अर्थात— प्रजापति के दाहिने बाहु देश से स्वायम्भुवमनु तथा बाहु से उनकी स्त्री शतरूपा नास्त्री उत्पनन हुई । इनके पुत्र पौत्र प्रभृति क्षत्रीय वंश के प्रतिष्ठित हुए ।

इसके बाद —

अरूदेशात्समुतपन्नों ब्राह्मणः प्राणवल्लभे ।
भलनदनेति विख्यातस्तस्य पत्नी मरूत्वति ।।
वत्समीति सुतस्तस्य प्रांशुस्तस्याऽभवनसुतः ।
प्राशोः पुत्राः षडासन्वै तेषां नामानिमे श्रृणु ।।
मोदः प्रमोदो बालश्च मोदनश्च प्रमर्दनः ।
शंकुकर्णेति विख्यातस्तेषां कर्म पृथक् पृथक ।।

अर्थात— प्रजापति के उरू देश से वैश्यों के मूलपुरुष भलनन्दन और उनकी स्त्री मरूत्वती नाम से पैदा हुई । इनके पुत्र वत्सप्रीति, वतसप्रीति से प्रांशु हुए । प्रांशु के छः पुत्र हुए जिनका नाम क्रमशः मोद, प्रमोद, बाल, मोदन, प्रमर्दन, शंकु और कर्ण हुआ । इनके कर्म भी पृथक पृथक हुए ।

मोदनस्य च वंशाये मोदकानां प्रकारकाः ।
वैश्य वृत्ति समाश्रित्य संजाताः पृथिवीतले ।।

अर्थात— मोदन के वंश में, मोदक (लड्डू) आदि का व्यवसाय करने वाले— वैश्य उत्पन्न हुए । जो कि इस वैश्य वृत्ति के द्वारा संसार में फैले । वर्णविवेक चन्द्रिका के अनुसार भलनन्दन और मरूत्वती नाम से उत्पन्न मोदन से हलुवाई जाति की विकास हुई ।

जिस तरह माली द्वारा तोडा गया फूल, डोम द्वारा बनाया गया बा“स का वर्तन, कुम्हार द्वारा बनाया गया मिट्टी का वर्तन धर्म कार्य हेतु शुद्ध माना गया हैं, उसी तरह सिर्फ हलुवाई द्वारा बनायी गई नेवैद्य ही देवी देवता को अर्पण करने के लिए शुद्ध माना गया हैं ।

मोदनसेन, मोदक और मोदनवाल

मोदनसेन महाराजा के बाद व्यञ्जन÷मिष्ठानादि के लिए जातीय कर्म में निरूपित हुए । उनका मूल नाम ‘मोदन’ से मोदक शब्द बना जिसका तात्पर्य सर्वोत्कृष्ठ मिष्ठान्न होता है । संस्कृति में ‘मोदक’ शब्द का अर्थ इस प्रकार दर्शाया गया है— मुद वर्ष ददति मोदक यानि जो सबको आनन्दित करें । मोद से ही मधु अर्थात मिठा होता है । उसी तरह मोदन का अर्थ बताया गया है— जिसमें सबको आनन्दित करने की क्षमता निहित हो । इस तरह संस्कृत के भावार्थ में ‘मोदन’ एक व्यक्तित्व के रूप में और ‘मोदक’ एक वस्तु के रूप में प्रतीत होता है ।

मोदक को बोलचाल में लड्डु कहते हैं । एभयउभि न्चयगउक क्ष्लमष्बके वेवसाइट के अनुसार मिष्ठान बनाने बाले हलुवाई प्रथम पुजीत भगवान् श्री गणेश जी का प्रिय भोजन मोदक (लड्डु) बनाने वाले के नाम से जाने जाते हैं । इसिलिए मोदक बनाने वाले मोदनवाल के रूप में परिचित हैं । आटा, चिनी, घी, बदाम, पिस्ता और केशर के मिश्रण से बनने वाला स्वादिष्ट मिष्टान्न ‘हलवा’ बनाने वाले को हलवाई कहा गया है ।

किन्तु अखिल भारतीय वैश्य हलवाई महासभा (भदोही, संतकवीरनगर, उत्तरप्रदेश) इस बात से सहमत नहीं है । महासभा की शताब्दी प्रवाह स्मारिका के अनुसार एक मात्र ‘हलवा’ से ‘हलवाई’ समझना उचित नहीं है । क्यों कि हलवा शब्द यहाँ का नहीं है— अरब आदि यवन देशों का है । यहाँ इस तरह के मिष्ठान को ‘मोहनभोग’ कहा जाता है । हलुवाई शब्द हलवा बनाने को लेकर नहीं, बल्कि ‘हलवाही’ शब्द अपभ्रंश होकर हलवाई हुआ जिसका तात्पर्य हल जोतना होता है । हलवाही कर अन्न उगाना और उसका मोदक आदि मिष्ठान सहित विभिन्न व्यञ्जन बनाने के कारण ये हलवाई तथा मोदनवाल आदि शब्दों से परिचित हुए । ‘वाल’ शब्द समूह वाचक है । संस्कृत में इसका अर्थ है— वृक्ष । ये चारो ओर से मिट्टी के घेरे से मेढ़ बन्दी कर दी जाती है । उसे वाल कहा गया है । अतः मोदनवाल सगुणों से परिपूर्ण प्रतीत होता है । हलुवाई जाति विशेष को मोदनवाल टाइटिल से पुकारा जाता था । आज हलुवाई जाति विभिन्न टाइटिल प्रयोग करने लगे है.। मोदनवाल हलुवाई का इतिहास मोदनसेन महाराजा के साथ शुरू होता है । मोदक बनाने वाले मोदनसेन कहलाए ।

रविवार, 12 सितंबर 2021

जय संत शिरोमणि बाबा गणिनाथ महाराज जी का संदेश :-

मद्धेशिया समाज के कुलगुरु श्री श्री 1008 संत शिरोमणि बाबा गणिनाथ जी महाराज भगवान शिव के अवतार थे। जिनका अवतार इस भूलोक में धर्म की रक्षा, मानवता का संदेश देने व मानवों के बीच बढ़ रही वैमनस्यता को दूर करने के लिए हुआ था। भगवान शिव के परम भक्त श्री मंशाराम ग्राम महनार वैशाली में गंगा किनारे अपनी एक कुटिया में सपत्नी रहते थे। मंशाराम जी सात्विक व धार्मिक विचारों को मानने वाले थे। गृहस्थ जीवन के साथ भगवान भोले शंकर के सबसे बड़े उपासक थे। संतानहीन होने के बावजूद उनका भगवान पर पूरा विश्वास था और वे अपने जीवन से खुश थे। इसी विश्वास व मंशाराम की भक्ति से प्रसन्न होकर भोले बाबा ने एक रात दर्शन दिया और अगले ही दिन वन में एक पीपल के पेड़ के नीचे एक अलौकिक बच्चा मिला। इसके अछ्वुत कारनामों ने मंशाराम की ¨जदगी ही बदल दी। बाद में यही बालक राजयोग व महर्षि योग के धनी होने के कारण आगे चलकर गणिनाथ हुए। चंदेल राजाओं में महाराजा धंग की पुत्री क्षेमा से विवाह के बाद गणिनाथ ने अपने पराक्रम से उनके राजपाट को और बढ़ा दिया। बाद में महाराजा धंग ने गणिनाथ का राज्याभिषेक कर दिया। इस बीच महमूद गजनी की क्रूरता की चर्चा सुनते ही गणिनाथ ने अपने प्रतापी पुत्र विद्याधर संग गजनी को देश से खदेड़ दिया। इस बीच पलवैया में यवनों के अत्याचार की सूचना मिली। इससे निपटने के लिए भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध में हार के बाद यवनों की सेना भी बाबा गणिनाथ जी महाराज के तपबल व योगशक्ति से इतना प्रभावित हुए कि शरणागत हो गए। इसके बाद अपने बेटे विद्याधर को राजपाट की जिम्मेवारी सौंप गणिनाथ सन्यासी वेश में खजुराहो की तरफ चले गए। वे खजुराहो से चित्रकुट, प्रयाग, अयोध्या व गो¨वदधाम तक की यात्रा पूरी की व देश के कई हिस्सों में जाकर लोगों को योग, साधना, मानवसेवा व शिक्षा के प्रति जागरूक किए।

बाबा गणिनाथ के संदेश

-वेदों का अध्ययन करें

-सच्चाई व धर्म का पालन करें

-काम, क्रोध, लोभ, अभिमान व आलस्य का त्याग करें

-नारी का सम्मान व रक्षा करें



शनिवार, 4 सितंबर 2021

कहां कहां है हमारे कुल देवता श्री गणिनाथ महाराज जी की मंदिर :-

मद्धेशिय समाज/जन जन के कूल देवता के मंदिर/तीर्थस्थल 

१ .पलवैया धाम, हसनपुर गुर्दा, दिनांक 23 अगस्त २०१९ को नव निर्मित बाबा गणिनाथ जी का मंदिर का उद्घाटन एवं 14 पिण्ड का स्थापन साथ में बाबा गोविंद जी, बाबा गणिनाथ जी एवं माता खेमासती का मूर्ति अनावारण हुआ। नव निर्मित सुन्दर भवन ABMVS के द्वारा भारत नेपाल के भक्तजनों के सहयोग से अध्यक्ष प्रेमचंद साव, सिल्लीगुड़ी, महामंत्री बसंत गुप्ता, गोरखपुर और कोषाध्यक्ष अनील गुप्ता, गया संग सभी भक्तजनों का मंदिर निर्माण में पूर्ण रूप से सहयोग रहा।

२. पलवैया धाम, हसनपुर गुर्दा, पलवैया गंगा तट पर स्थित बाबा गणिनाथ गोविन्दजी महाराज का मन्दिर है जिसका संचालन स्थानीय पंडा जी लोगो एवम राजपूत भक्तो के निगरानी में होता है । प्राचीन पलवैया धाम मंदिर का मूल चौकट एवम पल्ला ऐतिहासिक रूप में संरक्षित है।

३. कोनाहरा घाट, हाजीपुर में कलकल बहती जीवनदायनी गंगा जी के तट पर स्थित है , जिसके दुसरे तट पर हरिहर नाथ महादेव मंदिर दिखाई देता है।

४. घाघा घाट, पटना जो पटना युनिवर्सिटी के पास गंगा के तट पर बाबा गणिनाथ गोविन्दजी का सुन्दर प्राकृतिक सौंदर्य के साथ प्राचीन मन्दिर स्थित है। शाम सुबह के गंगा के मनोहर दृश्यों के साथ सुकून का समय व्यतीत कर सकते है।

५. पलवैया धाम के मुख्य मन्दिर के गंगा में समाधिस्त होने के पश्चात मुजफ्फरपुर के राय बहादुर टुनकी साव द्वारा बिदुपुर में काफ़ी बडा भूभाग गंगा के दुसरे तट पर लेकर मंदिर निर्माण कर बाबा गणिनाथ गोविन्दजी महाराज के साथ चौदहो देवान का पिंड स्थापित है। यह बृहत भूभाग एवम मन्दिर का संचालन ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।

६. दानापुर , पटना में गणिनाथ गोविन्दजी की सुन्दर नव निर्मित मन्दिर है यहां स्थानीय लोगों के द्वारा गणिनाथ जयंती समारोह आयोजित होता है ।

७. पटना शहर में ही कुर्जी इलाके मे गंगा के तट पर गणिनाथ गोविन्दजी की मन्दिर बना हुआ है यहा भादो कृष्णपक्ष अष्टमी के पश्चात आगत शनिवार को श्री गणिनाथ जी जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया जाता हैं।

८. पटना शहर के मध्य और प्रसिद्ध मुहल्ला राजेंद्र नगर स्थित तीन मंजिल का निर्मित विशुद्धानंद आश्रम के भूतल पर गणिनाथ गोविन्दजी स्थित है वही ऊपरी तल धर्मशाला एवम हॉल के रूप मे व्यवहार किया जाता हैं। इसमें कमरों की भी व्यवस्था है।

९. पोखरैरा , मुजफ्फरपुर में भव्य सुन्दर बाबा गणिनाथ जी गोविन्द जी एवम चौदहों देवान के पिंड स्थापित है। इस मन्दिर में गणिनाथ जी जन्मोत्सव पर भारी भीड़ जमा होता है।

१०. बीबीगंज, माड़ीपुर चौक पर बृहत भूभाग पर गणिनाथ गोविन्दजी जी जयंती समारोह आयोजित होता है । यह स्थानीय स्वजातीय द्वारा दान की प्राचीन भूमि है परंतु आपसी प्रॉपर्टी विवाद के कारण उतना डेवलप नही कर पाया है। अभी भी कई लोग प्रयासरत हैं यहां विविध शिक्षण संस्थान, छात्रावास , धर्मशाला खोला जा सकता है।

१. समस्तीपुर में बहुत ही सुन्दर बाबा के परिवार के जीवंत मूर्तियां स्थपित है । मन्दिर की देखरेख , सफाई काफ़ी सुन्दर है । गणिनाथ जयंती पर शानदार भीड़ इकठ्ठी होती हैं। 

१२. सीतामढ़ी में भारी जनसंख्या होने के बाद भी मन्दिर की भव्यता और विधि व्यवस्था सुदृढ़ नही है। मुझे गए कई वर्ष हों गया परन्तु सुना है नई कमेटी सक्रीय है। 

१३. मोतिहारी,पूर्वी चंपारण मे जातीय संख्या की कमी के बावजूद मन्दिर भूभाग लेकर बाबा को स्थान देना स्थानीय भक्तजनों की हिम्मत और हौसला को धनयवाद है। प्रतिवर्ष पुजा और मेला का आयोजन होता है।

१४. बारा चकिया, पूर्वी चंपारण में गत वर्ष ग्राम कुआवा के कुलगुरु भक्त श्रीं ओमप्रकाश जी द्वारा बृहत, भव्य मंदिर का निर्माण कर बाबा गणिनाथ जी के परिवार को स्थापित किया गया है।

१५. दरभंगा के गणिनाथ गोविन्दजी पूजक भक्तो ने २०१९ में भव्य मनभावन मन्दिर , हॉल का निमार्ण कर अपनी श्रद्धा और भक्ति का मिशाल कायम किया है।

१६. पुनर्नवा गणिनाथ मंदिर देवलास , मऊ, यू पी
मऊ जनपद मुख्यालय से लगभग ३५ कि मी दूर , घोसी मुहम्मदाबाद रोड पर देवलास में १९६२ में स्थापित संत गणिनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार तीव्र गति से जारी है

१७. दिल्ली में बुद्ध बिहार फेज २, रोहिणी में बाबा गणिनाथ गोविन्दजी जी चेरिटेबल ट्रस्ट द्वारा रजिस्टर्ड छोटा भूखंड पर नयनाभिराम बाबा गणिनाथ जी गोविन्द जी, माता खेमासती की प्रतिमा स्थापित किया गया है। 

१७.सती स्थान गालिमपुर , लोहची-बरियारपुर , जिला - मुंगेर ( बिहार) मद्धेशिय समाज के लिए एक तीर्थस्थल है जहाँ प्रतिवर्ष मद्धेशिय समाज हजारो -हजार की संख्या में एकत्रित होती है । इसे पूर्वी बिहार का पलवैया धाम कहा जाता है । प्रतिवर्ष होली के बाद द्वितीय_शनिवार_रविवार को दो दिवसीय पूजन नियत है । यहाँ सुंदरी पूजन , मुंडन संस्कार आदि शुभ मांगलिक कार्य सम्पन्न करते है । यहाँ सती मन्दिर , गणिनाथ -गोविन्द जी और भगवान शिव का मन्दिर बना हुआ है ।

१८. सहस्त्र धारा, गया में कुलगुरू गणिनाथ जी सुन्दर मन्दिर पहाड़ी पर स्थित है जहां प्रतिवर्ष श्रद्धालु जनों की भीड़ पहुंचती हैं।

१९. औरंगाबाद बाईपास पर बभनंडी में प्राचीन बाबा गणिनाथ जी की प्रतिमा मन्दिर में स्थापित है । जगह बहुत ही रामाणिक और अध्यात्म से जुडा है जहां आपकी आस्था और भक्ति स्वत संचारित होने लगता है।

 संख्या अधिक होने के कारण शहर/कस्बा का नाम, संख्या संकलित कर रहा हूं - (बिहार)
२०. बांध बनकेरवा , २१.परसा बाजार, २२.गरखा, २३. भागलपुर २४.मद्धेशिय मार्केट सिवान, २५. गोपालगंज,२६.भादस खगड़िया, २७.ढोढी नाथ मन्दिर, बेगूसराय, २८.माणिक पुर , मधेपुरा, २९. मोतीबाग, किशनगंज, ३०.सासाराम, ३१. मारन पुर, गया, खरिक बाजार, बलहा डीह, गढ़िया, कहारा ज़िला सहरसा, बड़का मन्दिर परिसर, लालगंज, सकरी, दरभंगा, गोविन्द नगर, दरभंगा, भरवारा, दरभंगा, बक्सर, महुआ, वैशाली, जगदीश पुर, भोजपुर
झारखण्ड -
३२. जमशेदपुर ३३. धनबाद ३४. ३५.रामगढ़ , ३६. सुरही बोकारो, ३७.रांची सिद्धपुर, ३८.चाईबासा, ३९.बरियातू रांची, ४०. बिजुरिया रांची, ४१.चांदवा, ४२. लातेहार, ४३. गढ़वा, ४४.सरैही डीह, पलामू, ४५.हजारीबाग, ४६.टमरी बरही, हजारीबाग,
उत्तर प्रदेश -
४७.वाराणसी, ४८.भृगुआश्रम, बलिया, ४९ कदमतार चौराहा, बलिया, ५०.उन्माद रोड, भादस ,५१. खापुरा रोड़ कानपुर, ५३.रसड़ा, 
नेपाल -
५४.बीरगंज, ५५.जलेसर, ५६.जनकपुर,५७. दुहई बाजार, ५८.रौतहाट, ५९.राजबिराज, ६०.सामहौती, ६१.पिपराही, 
पश्चिम बंगाल -
६२.राधा नगर, ६३.आसनसोल, 
६३. भिलाई छत्तीसगढ़, दोस्तपुर, दातूआर, महुआ, बल्लूपुर, कालीजरी से भी सूचनाएं प्राप्त हुआ है।
....... (क्रमशः)

नोट - कई लोगो के सहयोग से सूचि संकलीत किया गया है, भूलचूक होना लाजमी , अतः जहा गलत या स्थान छूट गया है तो सूचित करे।

शनिवार, 24 जुलाई 2021

श्री गणिनाथ चालिसा

संत शििरोमण बाबा गणिनाथ जी की चालििसा :-

शत् शत् प्रणाम इस माटी को, सन्तो ने तिलक लगाया है |
खेले है राम, कृष्ण, गौतम, गांधी ने माथ चढ़ाया है ||
भगवान भक्त के वश में हो, घर रूप सगुण आ जाते है |
अपनों की पीड़ा हरने को, बहु दया दृष्टि बरसाते है ||
सम्बत् एक हजार सात विक्रम, श्री कृष्ण जन्मोत्सव रहा पर्व,
सब झूम-झूम कर नाच रहे, भक्तो का भी बढ़ रहा गर्व |
ऐसी ही मंगल बेला में, शिव पूजा की मंशा जागी,
फिर मनसा पत्नी शिव संग, जप-तप में हो गये वैरागी |
शिवपूजन अर्चन कीर्तन में, दोनों प्राणी तल्लीन हुए,
तन सूख गया व्रत धारण में, शिव-जगदम्बा अधीन हुए |
कीर्तन करते-करते दोनों, गिर पड़े धरा मूर्छित हो,
चर-अचरो को अभास हुआ, शिव नाच रहे हो क्रोधित हो |
थर-थर कापने लगी धरती, देवो में हाहाकार मचा,
हिल गया ताज भी देवरज के, हिलने से हिमालय नही बचा |
इतने में गिरिजा साथ नाथ, शिव भोले बाबा प्रकट भये,
मूर्छा से मनसा-शिव मुक्त, सर्प युगल भांति पद लिपट गये |
हतप्रभ हो मनसा-शिव मौन, कुछ मुख से बोल न पाते है,
अन्तरयामी यह दृश्य देख, तब मन ही मुस्काते है |
तत्क्षण एक नवजात शिशु, दे दिये गोद जगदम्बा की,
जननी जगदम्बा वह प्रसाद, माँ शिव को दे अनुकम्पा की |
इस अवसर पर हर-हर महादेव, जय चतुर्दिक गूंज रहा,
अम्बर भी पुष्प बृष्टि करके, है भूतनाथ को पूज रहा |
आहलादित मनसा राम-शिव, आखों में आंसू भर लाए,
पूजन दर्शन देशाटन कर, गृह नगर पाटिलपुत्र आये |
सब नगर निवासी स्नेही जन, उललास में उत्सव करवाये,
कांदू मध्येशिया समाज में दम्पति को, सम्मान सहित है बैठाये |
अजैविकय इस बालक को, जब नामकरण का दिन आया,
मनसा जी ने तब महल में ही, सदर कुल पुरोहित बुलवाया |
ग्रह नक्षत्र देख कुण्डली बनी, गणिनाथ नाम है रखवाया |

मद्धेशिया (कानू) वैश्य के मूलडीह :-

मूल डीह का आशय हमारे पूर्वजो के निवास स्थान से है | जो जहाँ बस गये, वह उसका मूल डीह या गोत्र कहलाता है | 

मूल डीह की आवश्यकता विवाह के समय पड़ती है | उस समय हम तीन मूल-डीह प्रथम मूल डीह स्वयं का, दूसरा मूल- डीह नानी के परिवार का, तीसरा मूल- डीह दादी के परिवार (जिससे आई है ) का होता | लड़का व लड़की पक्ष के इन तीनों मूल डीहों का मिलान किया जाता है | 

'विवाह' हेतु इन तीनों मूलडीहों का समान होना अयोग्य समझा जाता है | वर एवं वधू पक्ष के क्रमशः इन तीनों मूलडीहों में किसी एक में भी सामनता नही होनी चहिए | हमारे धर्मग्रन्थ में भी ऋषियों द्वारा निकट सम्बन्ध में विवाहवर्जित है | वैज्ञानिक ने भी बताया कि दूर के सम्बन्ध होने से भावी संतान स्वस्थ एवं निरोगी होती है | मूल डीह कि रचना मध्यदेशीय समाज के कुलगुरु प्रवर संत गणिनाथ जी ने की है |

विवाह सम्बन्ध स्थापित करते समय इन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है | हम सभी को चहिए कि अपने समस्त मूलडीहों का ज्ञान अपने परिवार के समस्त सदस्यों को भलीभांति ज्ञात करा दे | यदि एक ही परिवार के पुत्र अलग-अलग दिशाओ में जाकर व्यवसाय करने लग जाते है | कालान्तर उनको मूलडीह एवं आपसी सम्बन्धों का ज्ञान न होने कि दशा में आपस में बनी रहती है जो भावी पीढ़ी के लिए ठीक नही होता |

कुछ मूलडीह अज्ञानतावश या अपभ्रंश की दशा में बिगड़ गए है | स्वजातीय बन्धुओं से निवेदन है कि वे प्रस्तुत मूलडीह शब्द-कोष को देखे, यदि उनका मूलडीह इस शब्द-कोष में नही है तो कृपया अपना वास्तविक मूलडीह प्रेषित करे | जिससे स्वजातीय संगठन मे मुलडीह का विवरण अंकित किया जा सके | आपका सहयोग व सुझाव हमारे समाज के लिए धरोहर सिद्ध होगी |

मूल डीह की वर्णमाला

अ-      अखवटी, अकठवा, असमौरिव, अवर, असरमउलिया, अखोप, अरुपा, असोकर, अखण्डवरी, अनकनवार, अवध, अकड़ा, अजूबा, अवध अमर, अवडवरी, अरबा, अन्हउरकन्हवार, अइठालाहा, अलवेलिया, अमरपुरिया, अवधिया |

आ-      आकर, आमोदेही, आमोडीह, आमी, आठी, आसाढूम, आनार, आमाड़ार, आमोपाली, आसाबर महुआ, आमर घरिया, आठिल |
इ-      इटहारा, इनार कसाई, आनन्दकार, इनार, इसरिया, इयाही, इमिरित कटोरी, इन्गुरिया, इमिरित कटोरिया, इन्गुरी, इटाढ़ी, इयारी, इनरिया,

उ-      उभरिया, उम्बरौली, उजवरहरिया, उच्चबरवली, उरकिया, उमड़िया, उबहडिया, उपठरिया, उभड़िया, उभर, उपनवास, उत्तरिया, उच्चकावावली, उमाडल |

ऊ-      ऊंचडीह, ऊंजोड़िया, ऊघड़, ऊभार, ऊमर, ऊरिया |ओं-औ ओपिनवार, औछ, ओधिया, ओकिनवार, क्षोमिया, ओरिया |

क-      कठवनिया, क्न्हौली, कमरघर, कलिया, कर्णवीर, कठघोरी के रामनाथ, कसोमर, कपनिया, कठोच, कनारी, कठधारी, कदबर, करियार, कठौतिया, करनी, कठार, कटवासी, करई, कड़डुआ, कहला, कलसरी, कटारी, मर्मसार, कररिया, करिहार, अआिंब, कसमरिया, कन्हवार, कररेट, कउआ, कमदरिया, कनकेनले, कउआ खोल, कठेसर, कनवाय, कटिहार, कनकाली, करअइनी, कम्पनी, करियारी, कर अइनी, कारी, कठारी, कनवारिया, कारो, कठिकोरे, कनइल, काकन, कनुआन, कहलाकोठा, कासिवाल, कठौवा, कमनौल, कगाजछुरी, कडवार, कमसरिया, कारीठ, कडडिया, कचुआर, कावर, ककराहा, कचोरना, काउड़, कपलहर, कररिया, कटिसो, कम्हारी, ककुरा, कांधी, कनकऊ, कगउली, कान्ही, कभार, कोथुआ, किपारी, कडेडिहा, कस्तूरिया, किनबारी, करगुजार करीलड़की, कडियाल, कड़वनिया, कुलारिखास, किशोर, कंगपाली, करोरिया, कटथरिया, किरकटोरा, कटारी के पांडे, कनछा, किनवतिया, करसर, कलेआन, कीटवा, कजरवटिया, कहिनवार, केनवार, कम्हार, कठार, केवला, केसरिया, कोदईडिह, कोहटा केसोपुर, कोहराव, कुलसेवरी, केनिपरसा, कोइन प्रसाद, कुस्टा, कैलानी, कोदई, कुपुरा, कोटरस, कोनवारिया, केहिड़िया, कोठिसा, कोठिसह, कुसाकोसो, कोहरिया, कान्हावान, कुनवरिया, कोठा, कोरेर, कुसुमी, कोहटी, कोईना, कुसुमियां, कोरियारी, कोइन परसा, कुड़वाब, कोटिजनवा, कुसहकपकड़ी, कन्दोई |

ख-      खजुरिया, खिरार, खोरी, खटकरिला, खीरकटोरा, खोरा, खलियाटोरा, खीरकटाशी, खोपीरहा, खपरिया, खम्भार, खोपड़िहा, खसखोरा, खुरहटा, खुदहा, खरसरा, खरुआ, खेंसहरा, खहिया, खेराकोहड़ा, खेमंतर, खारी रोटी, खोपरिया, खेमंतर, खाड़ा कोहड़ा, खोरीपटकर, खरिया, खानकारी, खरसेन |

ग-      गुरहनी, गायवंश, गईन, गुरनिया, गोराथेरा, गरकुआर, गरिलड़की, गंगापाली, गंगडली, गुरैनी, गंगापार, गनपलिया, गुहली, गवनहरी, गुठनी, गंगागोत, गम्भार, गेभारी, गंगिया, गरवा, गेनधारी, गंगबथोर, गारीकुआरी, गेरगोठिया, गंगोली, गरम चाका, गोहानी, गंगलिवहा, गलकान, गोकुलगंज, गुरुआ, गमचउर, गोहुआ, गुलवारिया, गंगवली, गोहना, गोरहना, गवहर, गोइठा, गिठैनी, गाछीहोडीवन, गोविनपुर, गोहुंआ गवार, दीछाडी, गुरहनी, गायवंश, गरुवार, गोहठा, गोहमा, गारहाकुआरी, गोहरा, गोरिया, गम्हरिया, गणधर, गोठवाली

घ-      घण्टाघर, घाघरा, घीवली |

च-      चनचा,चनपलिया, चकरी, चनवरिया, चनदुसाह, चनपटिया, चनुसपाकर, चुनीपरसा, चौवरिया, चनकगौरी, चुलकटा, चौपरिया, चउसबार, चिचोर, चौसवार, चननादर, चौपटिया, चौसा, चौपार, चौरसा, चौबार |

छ-      छपरिया, छरकिया, छहरगटी, छनिस |

ज-      जसरी, जीबलिया, जोधपुर, जवलिहा, जिराजपुर, जोकहरी, जवलिया, जीवरानपुर, जनकपुरिया, जलान्दुर, जे़वर, जईके, जातचकरी, जैपुर, जासापुर, जीराबस्ती, जैविजय, जुरा, जीरावाण, जैविजय, जुरा |

इ-      झ--झनकी, झनझनिया |

ट-      टवरा, टवराट्र, टटनी, टेपहा, टारी, टउनी, टवडर पोटा, टरकिया, टाबनखुत टेकारी, टेनारी, टकाखर, टकारवर |

ठ-      ठनडीहा, ठीका, ठीकाठोकी |

ड-      डमरी, डुमरीया, डूमरिहा, डीहुआ, डुकाइच, डुमरा, डिरअरिया, डुमुरी, डेरावार बरछी, डिघवरिया, डिपट, डेमा वीरता, डिहुव, डीहानवड़ा, डंडई |

ढ-      ढरकिया, ढरिया, ढेका, धकाइच, ढुटनी, ढकनी ढकाइचिया |

त-      तरवनी, तवकहां, तेजनिया, तरया |

थ-      थोका, थानव्तपार |

द-      दसी, दहवली, दियछिया, दरदी, दिघवरिया, दिवठिया देवराज, दमदीठा,दिया, दिघवार, दवना मरुआ, दिया, दिघवार, दवा मरुआ, दिरिया, दियानाती, दिया ढकनी, देवधरिया, दरभंगी, दियाबरनी, दैवथान, देवलिया, दियाधरनी, दैवापुरन, देवहरिया, दीहा, देवराजपुर, दैवनी, दीढकाइच, देवघाती, दोन मउच, दुरकोटा, देवाबरना, दोतोपरसा, दूरघस्सी, देवबन्दा, दोहरी, देवो, देवघरिया, दोन, देवो, दीउल, देवटिया, दियावरनी |

ध-      धनेर, धनोतर, धतरो, धनवाता, धरियापाल, धारक, धनवती, धनवतिया, धोनरिया, धरियापार, धनेज, धरहा, धतुरा, धरियापारधनौती, धोबाली, धनेसर धूराधीसया |

न-      नगेसर, नरायनबारा, ननडल, नरहसी, नरसरिया, नगथरिया, नरहबी, निधिभाव, नरसिध्द केसरिया, नरवली, नवउर, निगुरी, ननउरेवा, नवल, निनियान, निरस घियाव, नाब, नोनियार, नीतैया, नोनउर, नखनउआ, नेवार, नौछरिया, नौबत पुर, नेबरया, नोखनी, नैनगंज, नवलधिया |

प-      पचोतर, परसाकोनी, पियारा, पतोतर, पकड़िया, पियरिया, पकडीहा, पतियापाथर, पिरोजपुर, पनवाकर, पचखोरा, पित्तइया, परवतिया, पटुलिया, पिरपहती, पनहुरिया, पतार, पुनपुन, पग हनिया, पतनी, पथपाकर, पकरी, पथरा, पाराशाहर, पचोतरिया परनिया, पानपाकर, परसिया, पतरिया, पंचवाकर, पचवार, पानीपत, पेंथ के पाकर पतवाल, पानसुखा, पुरे उनचास, पतार, पन्तुरिया |

फ-      फरसिटार, फुलपाकर, फुलसिसवा, फुलकटोरी, फुलसेमर, फुलवारी, फरसाकोनी,

ब-      बलसुनर, बहलेपुर, बकुलिया, बकसरिया, बहरका, बलिया, बतारक्ष, बबड़िया, बरूराज, बथोर, बटवलिया, बहर पतभरवासागर, बगेदिया, बगेड़, बसनोतर चौहन, बथुआ, बहिदपुर, बबेघिया, बघोरा, बपुलिया, बथोरिया, बनरीघोर बकाइन, बपतेयर, बमदार, बखना, बसहर, बठुरिया, बनियारार, बलओधनराज, बसखेवसरवे, बटहन, बनियापाठक, बनहुलिया, बगेन, बघवनी, बकुलादि, बधार, बढ़नवली, बपुलहर, बकबलिया, बढ़निया, बसखे, बंजरिया, बेडिया, बरहजी, बधुछपरा, बसहरिया, बनियापासर, बरखोतनपुर, बसरे, बना बनारस, बखरिया, बादामवासी, बसदेवी, बबेतिया, बनियापाकड़, बकुलारी, बरहजिया, बसहरिया, बसदेवा, बबने, बंरिया, बन्धो, वनबाहर, बिशुनगंज, बीरनगर, बबडिया, बनेबनारस, बिरजा, बन्दीछोर, बीज, बनहरका, बादाम, विसुनगंज, बंजरंग सागर, बांसघाट, बिहिसा, बेलचकी, बाब, बिबेन, बलवंसी, बांसगांव, बिपिहा, वरियारी, बान, बेदोली, बरहिया, बासुदेव, बेलउरिंग, बबरा, बासुदेवपुर, बेलपाती, बीरमपुर, बासदेव मोतियापुर, बेलवा, बरइया, बालसुन्दर, बेलवार, बेगसागर, बिजय बनारसी, बेरिया, बापी, बिजय बनारस, वैष्णॅाव, बचरी, बियेरिया, बेदवली, बथोरा, बजबनी, बेलवरिया, बबेन, विजयनन, बेनी, बगेसर, बघवली, बगसरिया, बबेर, बनछोरनरायनी |

भ-      भरवली, भदाब, भदीईशरह, भरिया, भरोसा, भरवलिया, भनरभीत, भखरभाव, भडोसर, भभेरिया, भभरभार, भोजपत्र, भभउभाऊ, भानसहर, भौंड, भटबलिया, भाभरभोर, भुरिया, भदवा, भोपरिया, भगवनिया, भुरइया |

म-      मदन बनारस, मकनपर, मनवछिया, मथवली, मनरासा, मझुउवा, मनेर, मथमनिया, मडिया, मचवरिया, मडभनम, मानसागर, मदार, मराजी, मनुरा, मलेता, मनैमनारस, मशुहरी, मन्दारी, मंडर, मडुआडीह, महुल, मरेरा, मईली, माहुर, मदरिया, मनन बनारस, माड़ड, महुली, महुआ मार, माहार, महअई, महवन, मांडी, महुआ, महादेव, मासाढ़, महला, मंगलानन्द, माछा, महिनब, मसांछ, मीरिचोर, मनकी, मलक, मुरढकाईच, मरिला, मसाखी, मुराडीह, मुनमननवमी, मोहार, मोहारता, मुरीचोर, मोतिपुर, मोरा, मुरावण बरहजिया, मोहनी, मेहसार, मुड़िहा, मोहरिया, मोतीचूर, मुड़ाडीह, मोतिपारी, मोतीसरिया |

य-      यकसरिया, युवराजपुर |

र-      रसमेहरपुर, रावणकुटी, रुपउल, रहरसीसी, रावनपुर, रौनिया, रढिया, रामवर, राधेपुर, रवन, रावनपुल, रूपसागर, रमन, रागा, रमरमकुही, रामकूल, रामापाती, रावडरपीटा, राजगढ़, रावणपीटा |

ल-      लखनेसर, ललनसेस, लकेरर, लखनवारी, लछुपाही, लखनऊ, लवरछी, लवरछिया, लदवाई, लखनसरि, लइवार, लवहेलिका, लघुवोरिया, लखनी, लघुआई, लकनेसरिया, लबरिया, लवररिया, लहना, लकाचक, लवकुश, लघआर, लेहरी, लीलवछ, लोचनीय, लतरिया, लखौरी |

श-      श्री उमाराव श्रीचक |

स-      सतवार, सिलहट, सिमवाल हुजारी, समोगत, सिरजन, सीसरो, समजीरा, सिद्धभारी, सीवाषढ़, सवानी, सिद्धपुर, सिलीटाड़, सकरिया, सिद्धगढ़, सुरसरजी केवलिया, सहरदेवकलिया, श्रीबिरिया, सुरसरडीहा केवलिया, सकरबरिया, सिरगिटया सुवेठिया, सारी, सिगार, सीनटया, सारनी, सिद्धराम, सेनीखरिया, साकिन, सिरघुसी, सोदहर, सागरपाली, सिरोपुर, सोनाडीह, सामनील, समेही, सोसबतिया, सकरवार, सिहोसा, सोसमगिया, सिपलक, सिलहरिया, सोने रुने का खरिका, सिमहल, सिनाभोर, सहस्त्रदेव का बलिया, सोना-सावरी, साखी, सकरवर, सतरियापुर, संगम, सुववली, सवना-पवना, सोसदेव कुलसलिया, समुफवनी, सरकवली, सरयुपारो, सागर गजेरा, सिहोरी, सहरबरी, सहियाबाद, सिकरउर, सहर बगसय, सेनुहारी, सतरियापुर, सगूना, सुससर, सहरवरी शहर, सिविरिहाया, सीरिया, सरगी-सितारा, सुनोपहारी, सामुत्रिक |

ह-      हरकासी, हरदी घवही, हाथी के डार टेहा-टेही, हरद्वा, हरदी कटारा, हरसार, हरदी, हरिया डाब, हरशंकर, हराठ, हसनपुरवा, होजकटोरा, हराठा, हाट कसरे, हरदी छपरा, हरदिया, हाथी के, हिछो पास, नगर, हथुरा, हवेली, हीरामनपुर, हिमालया |

विश्वामित्र गुुप्त - कानपुर 

व्ह्हाट्स नम्बर - 9236473699

रविन्द्र कुमार मद्धेशिया - दिल्ली 

व्हाट्सअप नम्बर - 99998 68842

एवं 

उमा शंकर गुप्त - अकबरपुर 

व्हाट्सअप नम्बर - 9452077033 

 मुख्य एडमीन - मद्धेशिया वैवाहिक परिचय ग्रुप