
गुरु ने दिया नाम :- रामलाल से
पल्टू
पलटना,यानि लोक-प्रचलित अर्थो में, अपनी जुबान से पलट जाना,मुकर जाना
कहलाता है और गाली माना जाता है I किन्तु संतो की दुनिया में सब कुछ निराला और
अपूर्व होता है I इनकी दुनिया के मूल्य-मन-चलन सब उलट और विपरीत होते है,हमारी
भौतिक दुनिया से I अतः संत पल्टू का पलटना शोभा,सम्मान,आदर्श और वीरता का कार्य हो
गया I क्यूंकि पल्टू मात्र भौतिक सुखों से नहीं पलटे,बल्कि ऐंद्रिकता के सारे आकषॆणों
से पलट कर सभी प्रबल बंधनों के विरुद्धआत्म लोक की ओर मुड़ गये I वह ऐसा पलटे कि
अपना पहले का नाम, धाम, जन्मतिथि या परिचय सब भुला दिया I ऐसा पलटे कि भौतिक ही
नहीं, भूतकाल की स्मृतियों को भी पीठ दे दी और स्वयं को पल्टू कहलाकर, स्वयं को
पल्टू होने पर सुख माना, आनंदित हुए, गर्व का अनुभव किया, क्यूँ कि यह नाम गुरु ने
दिया था I यह उनकी असली पहचान थी I गुरु ने गद्गद होकर कहा, ‘अरे ! यह बनिया तो
पलट गया ! दुनिया से , दुनियावी चलन से I इसने आध्यात्मिक अन्तर्मुखी चलन पकड़ लिया
!’ और इतना सुनना था उस बनिए का की उसने इस शब्द को ,पकड़ लिया I और अपनी पहचान बना
लिया I
संसार में रहकर, संसार से पलटना
कितना दुष्कर कार्य है I यह हर संसारी जानता है I और यदि किसी भी भांति, संयोग से,
किसी गुरु, पीर की कृपापूर्ण सहायता या प्रेरणा से यह घटित हो जाय तो कैसा
आह्रादकारी हो जाता है I इस तरह पलटना की जीवन को सार्थकता, पूर्णता एवं चरम आनंद
की उपलब्धि हो I या फिर पल्टू बनिए से ही पूछ लो इस पलटने का आनंद! उसे बहुत भटकने
के पश्चात् मिला है यह पलटना !
जीव , ब्रम्ह के अति निकट होते
हुए भी अति दूर इस कारण से होता है , क्योंकि उसने ब्रम्ह की ओर पीठ कर रखी है I
इस कारण दोनों के मध्य माया का पर्दा , अंधकार पसर जाता है I किंतु जब भी कभी ,किसी
भी कारण से ब्रम्ह की ओर जीव मुख कर लेता है, ब्रम्ह सम्मुख हो जाते हैं, तब माया
विलुप्त हो जाती है I
हित उपदेश की दीक्षा सिर्फ संत ही
दे सकते है :-
संत सनेही नाम है न सनेही संत
II
नाम सनेही संत नाम को वही
मिलावैं II
वे हैं वाकिफकार मिलन की राह
बतावैं II
जप तप तीरथ करें बहुतेरा कोई II
बिना वसीला संत नाम से भेंट न
होई II
कोटिन करै उपाय भटक सगरौ से आवै
II
संत दुवारे जाय नाम को घर तब
पावै II
पल्टू यह है प्राण पर आदि सेती
औ अंत II
संत सनेही नाम है नाम्स्नेही
संत II
‘नाम’ शब्द गुरु लोग,संत लोग
देते हैं,प्रदान करते हैं I मगर यह ‘नाम’ है क्या ?
इस पर पल्टू दास जी प्रकाश
डालते हुए कहते है :-
जो कोई चाहै नाम तो नाम अनाम है
I
लिखन पढन में नाहीं निझच्छर काम
है II
रूप कहौ अनरूप पवन अनरेख ते I
अरे हाँ पल्टू गैब दृष्टि से
संत नाम वह देखते II
नाम डोरि है गुप्त कोऊ नहिं
जानता I
निः अच्छर निः रूप दृष्टि नहिं
आवता II
अरे हाँ पल्टू देखत हैं इक संत
और सब पेखना II
फुटि गया आसमान सबद की धमक में
I
लगी गगन में आग सुरति की चमक
में I
सेसनाग औ कमठ लगे सब कॉपने I
अरे हाँ पल्टू सहज समाधि की दसा
खबरि नहिं आपने II
नाम तो अनाम ही हैं यह कोई भाषा
का, लिखने-बोलने जैसा कोई शब्द नहीं है I नाम निराकार है I यानि अनरूप है I तथा
रोप्प रंगहीन है I वह आँखों से दिखता भी नहीं है I सदा गुप्त रहता है Iसंत लोग ही
ज्ञाता हैं I जिस प्रकार पवन की प्रकृति होती है—अर्थात न रूप , न गंध, न आकार,
मगर सत्य है,हवा होती है, उसी प्रकार की कुछ प्रकृति नाम की भी है I संत उसे
अलोकिक शक्ति से, दिव्य दृष्टि से देख-समझ लेते हैं Iवह हमारे भीतर है I जब सुरत
हमारे अंत गगन को भेद कर उध्र्वाॆ,यानि ऊपर को चढ़ती है तब नाम की ध्वनि हमें सुनाई
पड़ती है I और पूर्ण अंदरूनी आकाश ,प्रकाश से चकाचौंध हो जाता है I